सूत्र :एक समये चोभयानवधारणम् ॥॥3/20
सूत्र संख्या :20
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - एकसमये। च। उभयानवधारणम् ।।
पदा० - (एकसमये, च) औ एक ही काल में (उभयानवधारणम्) चित्त और विषय का ग्रहण नहीं होसकता।।
व्याख्या :
भाष्य - चित्त को स्वभासक तथा विषयभासक मानने से क्षणिकविज्ञानवादी के मत में चित्त तथा विषय का एक ही काल में प्रवेश होना युक्ति विरूद्ध है।।
तात्पर्य्य यह है कि प्रथम क्षण में वस्तु की उत्पत्ति, द्वितीय क्षण में किया ओर तृतीय क्षण में किसी कार्य्य को सम्पादन करने से वह वस्तु “कारक” नाम से कही जाती है यह सिद्धान्त है, परन्तु क्षणि विज्ञानवादी का यह मत है कि “भूतिर्येपां क्रियासैब कारकंसैवचैच्यते”= वस्तु की उत्पत्ति, द्वितीय क्षण में किया, तृतीय क्षण में कारक हो।।
विज्ञानवादी का उक्त कथन इसलिये ठीक नहीं कि भिन्न - भिन्न व्यापार द्वारा भिन्न - भिन्न कार्य्य की उत्पत्ति होने के नियम से एक ही क्षण में उत्पन्न हुआ चित्त अपनी उत्पत्तिरूप क्रिया द्वारा अपने स्वरूप तथा विषय के स्वरूप का निश्चय नहीं करसकता और उसकी उत्पत्ति क्षण में उत्पत्तिरूप व्यापार के बिना चित्त का अन्य कोई व्यापार नहीं कि जिससे वह विषय का निश्चय करसके और दूसरे क्षण में चित्त की सत्ता न होने से तुम्हारे मत में विषय का निश्चय होना युक्ति विरूद्ध ही नहीं किन्तु असम्भव है, इसलिये एक काल में चित्त तथा विषय का प्रकाश न होने के कारण चित्त से भिन्न साक्षी पुरूष का मानना ही युक्त है।।
सं० - अब चित्त के प्रकाशक अन्य चित्त मानने में दोष कहते हैं:-