DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :सदाज्ञाताः चित्तव्र्त्तयः तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात् ॥॥3/18
सूत्र संख्या :18

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - सदा। ज्ञाता:। चित्तवृत्तय:। तत्प्रभोः। पुरूषस्य। अपरिणामत्वात्।। पदा० - (तत्प्रभो:) चित्त के स्वामी को (चित्तवृत्तय:) चित्त की वृत्तियें (सदा ज्ञाता:) सर्वदा ज्ञात रहती हैं ? (पुरूषस्य) पुरूष के (अपरिणामित्वात्) अपरिणामी होने से ।।

व्याख्या :
भाष्य - यदि चित्त का स्वामी साक्षीभूत पुरूष चित्त की भांति परिणामी हो तो पुरूष की विषयीभूत जो चित्तवृत्तियां हैं वह भी चित्त के विषय घटादि की भांति ज्ञात और अज्ञात हो जावेंगी परनतु ऐसा नहीं होता, क्योंकि पुरूष की वृत्तियां सदा ही ज्ञात रहती हैं अज्ञात नहं, जैसाकि अहंसुखी, अहंदुःखी, इत्यादि स्थलों में कदापि यह सन्देह नहीं होता कि मैं सुखी हूं अथवा नहीं, इससे पाया गया कि परिणाममिचित्त से भिन्न ज्ञाता पुरूष अपरिणामी है।। सं० - अब यहां यह शंका होती है कि चित्त ही स्वतः प्रकाश और वह क्षणिक है उससे भिन्न अपरिणामी पुरूष नहीं? उत्तर:-