DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :तदुपरागापेक्षित्वात् चित्तस्य वस्तुज्ञाताज्ञातं ॥॥3/17
सूत्र संख्या :17

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - तत्। उपरागापेक्षितत्त्वात्। चित्तस्य। वस्तु। ज्ञाताज्ञातम्। पदा०- (वस्तु, ज्ञाताज्ञातम्) बाह्म पदार्थ कभी ज्ञात होता है और कभी अज्ञात होता है वह (चित्तस्य) चित्त के (तत्) उस वस्तु विषयक (उपरागापेक्षितत्त्वात्) सम्बन्ध की अपेक्षा रखने से होता है।।

व्याख्या :
भाष्य - जिस समय विषय का चित्त के साथ इन्द्रिय द्वारा सम्बन्ध होता है तब वह ज्ञात होता है और अन्य समय अज्ञात होता है।। तात्पर्य्य यह है कि अयस्कान्तमणि की समीपता से आकृष्ट हुए लोह की भांति परिणामस्वभाव चित्त इन्द्रियों द्वारा आकृष्ट हुआ विषय के सम्बन्ध से समानाकार होजाता है तब वह विष ज्ञात, और जब सम्बनध न होने से समानाकार नहीं होता तब वह अज्ञात कहताला है ।। सं० - चित्त से भिन्न विषय को स्थापन करके चित्त को परिणामी कथन किया, अब आत्मा को चित्त से भिन्न अपरिणामी कथन करते हैं:-