सूत्र :तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥॥1/13
सूत्र संख्या :13
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद०- तत्र। स्थितौ। यत्र:। अभ्यास:।
पदा० - (तत्र) उन दोनों के मध्य में जो (स्थितौ) चित्त की स्थिति के लिये (यत्र:) यत्र किया जाता है उसको (अभ्यास:) कहते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य-अपरवैराग्य के अनुष्ठान से राजस, तामस वृत्तियों के निरोध होने पर जो वित्त में एकाग्रता अर्थात् एकमात्र सात्त्विक वृत्तियों का प्रवाह उदय होता है उसको स्थिति कहते हैं, उस स्थिति के लिये इस बहिर्मुख चित्त का “मैं सर्वथा निरोध करूँगा” इस प्रकार मानस उत्साह द्वारा चित्त को वाहृा विषयों से रोककर यम नियमादि साधनों के अनुष्ठान में लगाने का नाम “अभ्यास” है।।
सं०-अब उक्त अभ्यास की दृढ़ता का उपाय कथन करते हैं-