DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

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सूत्र :अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्तिअध्वभेदाद् धर्माणाम् ॥॥3/12
सूत्र संख्या :12

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - अतीतानागतं। स्वरूपत:। अस्ति। अध्वभेदात्। धर्माणाम्। पदा० - (धर्माणां, अध्वभेदात्) गहत्तत्त्वादि पदार्थों के कालभेद से (अतीतानागतं) भूत भविष्यत् वस्तु (स्वरूपत:) अपने स्वरूप से (अस्ति) विद्यमान रहती हैं।।

व्याख्या :
भाष्य - भूत, भविष्यत्, वत्र्तमानरूप, कालभेद से भूत, भविष्यत् वस्तु भी वत्र्तमान वस्तु की भांति अपने धर्मो में विद्यमान रहती हैं, क्योंकि वस्तु के स्वरूप का सर्वथा नाश नहीं होता, अतएव वत्र्तमान अवस्था से अतीत अवस्था को प्राप्त होना ही वासनाओं का नाश है, इस प्रकार योग के सत्कार्य्यवादकी हानि नहीं, वासना वत्र्तमान अवस्था को प्राप्त होकर ही चित्त को वासित करती हुई बन्ध का हेतु होती हैं ओर अतीत अवस्था को प्राप्त होकर पुनः चित्त को वासित नहीं करती तथा बन्ध का हेतु भी नहीं होती।। तात्पर्य्य यह है कि जिस पदार्थ की अभिव्यक्ति आगे होनेवाली है वह “अनागत”और जिसकी पीछे हो चुकी है वह “अतीत” और जो अपने व्यापार में उपारूढ़ हुआ अभिव्यक्त हो रहा है वह “वत्र्तमान”है, योग सिद्धान्त में यह तीनों प्रकार के पदार्थ योगी के प्रत्यक्षज्ञान का विषय हैं, यदि वस्तु स्वरूप से अतीत और अनागत न मानी जाय तो योगी को त्रैकालिक प्रत्यक्षज्ञान नहीं होसकता, क्योंकि विषय की सत्ता के बिना प्रत्यक्षज्ञान होना असम्भव है, अतएव अतीत अनागत पदार्थों को स्वरूप से विद्यमान मानना आवश्यक है, इससे सिद्ध हुआ कि अतीत और अनागत पदार्थ भी स्वरूप से विद्यमान रहते हैं नाश को प्राप्त नहीं होते।। सं० - अब उक्त धर्मो की गुणरूपता कथन करते हैं:-

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