सूत्र :हेतुफलाश्रयालम्बनैःसंगृहीतत्वातेषामभावेतदभावः ॥॥3/11
सूत्र संख्या :11
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - हेतुफलाश्रयालम्बनै:। संगृहीतत्वात्। एषाम्। अभावे। तदभाव:।
पदा० - (हेतुफलाश्रयालम्बनै:) हेतु फल, आश्रय तथा आलम्बन इन चारों के द्वारा (संगृहीतत्वात्) वासनाओं का संग्रह होने से (एषाम् , अभावे) इनके अभाव से (तदभाव:) वासनाओं का अभाव होजाता है।।
व्याख्या :
भाष्य - वासनाओं का मूलकारण अविद्या है, उसका नाश होजाने से वासअनाओ का स्वयं नाश होजाता है, क्योंकि अविद्यारूपी दण्ड से वह षट् अरों वाला संसारचक भ्रमण करता है अर्थात् प्रथम जीव को धर्म से सुख तथा अधर्म से दुःख, फिर सुख से सुख और उसके साधनों में राग और दुःख से दुःख तथा उसके साधनों में द्वेष, फिर राग-द्वेष से प्रयत्र=शरीर की चेष्टा होना, चेष्टा से पर पीड़ा तथा अनुग्रह होना और उससे धर्माधर्म उत्पन्न होते हैं और उन से फिर सुख दुःख तथा सुख दुःख से फिर राग द्वेष, इस प्रकार अनादिकाल से भ्रमित धर्म, अधर्म, सुख, दुःख, राग, द्वेष, इन छ अरों वाला संसारचक्र है, इस चक्र का मूल अविद्या है।। ३
तात्पर्य्य यह है कि अविद्या वासनाओं का हेतु “हेतु” और जिस उद्देश्य से धर्माधर्म किये जाते हैं वह “फल” तथा साधिकार मन “आश्रय” और जिस वस्तु विपयक वासना देती है वह “आलम्बन”है, इस प्रकार इन चारों से वासनायें संग्रहीत होती हैं, जब विवेकख्याति के उदय होने से अविद्या का नाश होजाता है तब हेतु आदि चारों का भी अभाव होजाता है और इनके अभाव होने से वासनाओं का भी अभाव होजाता है।।
सं० - ननु, योगशास्त्र में तो सत्कार्य्यवाद माना गया है फिर वासनाओं का नाश कैसे होसकता है? उत्तर:-