सूत्र :कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनः त्रिविधमितरेषाम् ॥॥3/7
सूत्र संख्या :7
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - कर्म। अशुक्काकृष्णम्। योगिन:। त्रिविधम्। इतरेषाम्।
पदा० - (योगिन:) योगी के कर्म (अशुक्काकृष्णम्) अशुक्काकृष्ण होते हैं और (इतरेषाम्) योगी से भिन्न पुरूषों के कर्म (त्रिविधम्) तीन प्रकार के होते हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - योगी के समाधि आदि कर्मों का नाम “अशुक्काकृष्ण” है, योगी का कम्र निष्काम होने से शुक्क=पुण्यरूप नहीं ओर अकृष्ण=निषेध विषयक वैदिक प्रमाण न पायेजाने से पापरूप भी नहीं और इतर जीवों के कर्म शुक्क, कृष्ण, शुक्ककृष्ण भेद से तीन प्रकार के है, तप, स्वाध्याय, ध्यानादि सात्त्विक कर्मों का नाम “शुक्ल” ब्रह्महत्या आदि तामस कर्मों का नाम “कृष्ण” और यज्ञादि राजस कर्मों का नाम “शुक्लकृष्ण” है।।
भाव यह है कि समाधि द्वारा अविद्यादि क्केश तथा कर्मों की वासनाओं के निवृत्त हो जाने से योगी को पुण्य पाप का सम्बन्ध नहीं होता और योगी से भिन्न पुरूषों के चित्त में उक्त तीन प्रकार के कर्मों द्वारा वासनाओं के बने रहने से पुण्य पाप का सम्बन्ध भी बना रहता है।।
सं० - ननु, जब योगी से भिन्न जीवों के कर्म शुक्क, कृष्ण तथा शुक्ककृष्ण, एवं तीन प्रकार के होते है तो ऐसे मिश्रित कर्मों से मनुष्यजम्न कैसे हो सकता है? उत्तर:-