सूत्र :प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम् ॥॥3/5
सूत्र संख्या :5
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - प्रवत्तिभेदे। प्रयोजकं। चित्तं। एकं। अनेकेषाम्।
पदा० - (अनेकेपाम्) अनेक चित्तो की (प्रवृत्तिभेदे) जाने आने रूप किया में (एकं, चित्तं) एकचित्त (प्रयोजकं) प्रेरक होता है।।
व्याख्या :
भाष्य - इस सूत्र के यह अर्थ सर्वथा असंगत हैं, यदि इस सूत्र के यह अर्थ होते तो आगे के सूत्र में यह क्यों निरूपण किया जाता कि वासना रहित चित्त ही कैवल्य=मुक्ति का उपयोगी है, पूर्व चार प्रकार के चित्त कैवल्य के उपयोगी नहीं, इस संगति से पाया जाता है कि यहां पांच प्रकार के सिद्धचित्तों का ही वर्णन है अनेक शरीर धारण तथा अनेक चित्तों की उत्पत्ति का कोई प्रकरण नहीं।।
वास्तव में सूत्र के अर्थ सगंति से यों बनते हैं कि उक्त मन्त्रादि साधनों से एक चित्त पांच प्रकार का कैसे होसकता है? इसका उत्तर यह दिया गया है कि (अनेकषाम्) अनेक काय्र्यो की (प्रवृत्तिभेदे) भिन्न - भिन्न दशा में (एक, चित्तं) एक चित्त ही (प्रयोजकं) हेतु है।।
भाष्य - सात्त्विकी प्रवृत्ति वालों के लिये वही चित्त सात्त्विकभावापत्र, तामसी प्रवृत्ति वालों के लिये वही चित्त तमोभावापात्र और राजसी प्रवृत्ति वालों के लिये वही चित्त रजोभावापत्र हो जाता है।।
सं० - अब उक्त भावों से वर्जित चित्त का कैवल्य में उपयोगी होना कथन करते हैं:-