सूत्र :निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनांवरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥॥3/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - निमित्तम्। अप्रयोजकं। प्रकृतीनां। वरणभेद: । तु। तत:। क्षेत्रिकवत्।
पदा० -(निमित्तं) धर्मादिक जो निमित्त हैं वह (प्रकृतीनां) प्रकृतियों का (अप्रयोजकं) प्रयोजक नहीं हें (तु) किन्तु (तत:) धर्मादिक निमित्तों से (क्षेत्रिकवत्) खेत जोतने वाले किसान की भांति (वरणभेद:) प्रतिबन्धक की निवृत्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - जैसे किसान एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जल लेजाने के लिये जल के प्रतिबन्धक आलवाल को छिन्न - भिन्न करदेता है जब वह स्वयं अन्य क्षेत्र में पहुंच जाता है, इसी प्रकार उक्त पांच प्रकारों से चित्त की सिद्धि होने के लिये धर्म केवल विघ्नों को हटाता है, विघ्नों के दूर होने से उक्त सिद्धियों का यह स्वभाव है कि वह चित्त और इन्द्रियों के जन्म को बदल देती हैं।।
यहां परिवत्र्तन होने क अर्थ चित्त का स्वभाव और इन्द्रियों क सामथ्र्य बदल जाने के हैं न कि योगी की शरीर बदल जाने के, यदि जात्यन्तरपरिणाम शब्द से शरीर के परिवत्र्तन होने का अभिप्राय लिया जाय तो पूर्वोक्त सब कर्म निष्फल होजाते हैं।।
सं० - यह दोष तो चित्त के परिवत्र्तन होने में भी समना है? उत्तर:-