सूत्र :निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् ॥॥3/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - निर्माणचित्तानि। अस्मितामात्रात्।
पदा० - (निर्माणचित्तानि) चित्त को जो प्रकृत्यापूरद्वारा निर्माण करना कथन किया है वह (अस्मितामात्रात्) अविवेकमात्र से है।।
व्याख्या :
भाष्य - तप, स्वाध्यायादि साधनों से चित्त को सिद्ध करने के अर्थ नूतन उत्पन्न करने के नहीं किन्तु पूर्व सिद्ध चित्त को सुधार लेने के हैं और जो प्रकृत्यापूर से चित्त का निर्माण करना कथन किया गया है वह उपचार से है वास्तव नहीं।।
इस सूत्र के भाष्य में पौराणिक टीकाकारों ने योगी में अनन्त शरीर उत्पन्न करने का सामथ्र्य माना है ओर उन अनके शरीरों के लिये योगी अनेक ही चित्त उत्पन्न कर लेता है अर्थात् योगी के भिन्न - भिन्न शरीरों में भिन्न - भिन्न चित्त होते हैं यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने से यह दोष उत्पन्न होता है कि एक २ चित्त अपने २ शरीर को जिधर चाहेगा उधर ही लेजावेगा और ऐसा होने से फिर कोई व्यवस्था न रहेगी, क्योंकि उन सब चित्तों का नियन्ता कोई एक नहीं? इस दोष को दूर करने के लिये यह उत्तर दिया है कि योगी एक और चित्त उत्पन्न कर लेता है जो उन सब चित्तों का स्वामी होता है और वही सब चित्तों को आज्ञा में रखता है, इस प्रकार असम्भव अर्थो से योग को खेल के खिलौनों के समान बना दिया है जो सूत्रों के आशय से सर्वथा विरूद्ध है, इसी आशय का सिद्ध करने के लिये पौराणिक टीकाकारों ने निम्नलिखित सूत्र के अर्थ इस प्रकार बदले हैं कि: -