सूत्र :जन्मओषधिमन्त्रतपस्समाधिजाः सिद्धयः ॥॥4/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : अथ चतुर्थ कैवल्पादः प्रारभ्यते
सं० - प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय पाद में योग, योग के साधन और योग की विभूतियों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया, अब इस चतुर्थ पाद में कैवल्य का निरूपण करते हुए कैवल्य योगय चित्त के निर्णयार्थ पांच प्रकार के सिद्ध चित्तों का कथन करते हैं:-
पद० - जन्मौपधिमन्त्रतप: समाधिजा: । सिद्धयः।
पदा० - (जन्मौपधि ०) जन्म, औषधि, मन्त्र, तप और समाधि, इन पांचों से उत्पन्न हुई पांच प्रकार की (सिद्धय:) सिद्धियें हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - जन्मजा, औषधिजा, मन्त्रजा, तपोजा, समाधिजा भेद से सिद्धियें पांच प्रकार की हैं, संस्कारी पुरूषों के जन्म से होने वाले तीव्रबुद्धि आदि सामथ्र्य को “जन्मजा” पुष्टिकारक औषधियों के सेवन करने शरीर में होनेवाली शक्तिविशेष को “औषधिजा” वेदाध्ययन द्वारा चित्तसिद्धि को “मन्त्रजा” ब्रह्मचय्र्यादि तपों से चित्तसिद्धि को “तपोजा” और पूर्वपादोक्त चित्तवृत्तिनिरोधरूप समाधि से होनेवाली सिद्धि को “समाधिजा” कहते हैं।।
भाव यह है कि चित्तसिद्धि के यह पांच प्रकार हैं, इन प्रकारों से योगी का चित्त सिद्ध होजाता है और चित्त की सिद्धि होने से उसके शरीर तथा इन्द्रियों में दिव्य सामथ्र्य की प्राप्ति होती है।।
सं० -ननु, पूर्वोक्त साधनों से शरीर तथा इन्द्रिये पूर्व से विलक्षण कैसे हो जाते हैं ? उत्तर:-