सूत्र :सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम् ॥॥3/54
सूत्र संख्या :54
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - सत्त्वपुरूषयो:। शुद्धिसाम्ये। कैवल्यं। इति।
पदा० - (सत्त्वपुरूषयो:) बुद्धि तथा पुरूष की (शुद्धिसाम्ये) शुद्धि समान होने से (कैवल्यं) कैवल्य की प्राप्ति होती है (इति) यह पाद समाप्त हुआ।
व्याख्या :
भाष्य - “इति” शब्द पाद की समाप्ति के लिये आया है सत्त्व पुरूष का नाम “बुद्धिपुरूष” विवेकख्याति द्वारा बुद्धि के दग्धक्केशबीज होने का नाम “बुद्धिशुद्धि” बुद्धिद्वारा होनेवाले भोग के अभाव का नाम “पुरूषशुद्धि” है, जब योगी को बुद्धि तथा पुरूष की शुद्धि प्राप्त होती है त बवह कैवल्य को प्राप्त होजाता है।।
भाव यह है कि विवेकख्याति के उदय होने से संसार के हेतु क्केश बीज जब क्षय होजाते हैं जब बुद्धि पुरूष के समान शुद्ध कही जाती है और अविवेक दशा में बुद्धि के द्वारा होने वाले भोग की जब निवृत्ति होजाती है जब पुरूष की शुद्धि कही जाती है, इस प्रकार जब योगी को उक्त दोनों शुद्धियें प्राप्त हो जाती है तब वह मुक्त होजाता है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि विवेकज ज्ञान पर्य्यन्त जितनी विभूतियों का निरूपण किया है वह परम्परा से कैवल्य का उपयोगी मानकर किया है वस्तुत: कैवल्य का हेतु केवल विवेकख्याति ही है, जिस योगी को उक्त विभूतियों की प्राप्ति नहीं हुई और विवेकख्याति की प्राप्ति होगई है उसको कैवल्य के प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं, परन्तु विवेकख्याति के न होने से कैवल्य की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये कैवल्याभिलाषी योगियों को विवेकख्याति का ही सम्पादन करना आवश्यक है।।
दोहा
अंग तीन परिणाम कथ, कियो पाद को अन्त।
योग विभूति विशालता, ताको जानत सन्त।।
इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिवद्धे, योगार्य्यभाष्ये
तृतीय विभूतिपाद: समाप्त: