सूत्र :जातिलक्षणदेशैः अन्यतानवच्छेदात् तुल्ययोः ततः प्रतिपत्तिः ॥॥3/52
सूत्र संख्या :52
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - जातिलक्षणदेशै:। अन्यतानवच्छेदात्। तुल्ययो:। तत:। प्रतिपत्ति:।
पदा० - (जातिलक्षणदेशै:) जाति, लक्षण तथा देश द्वारा (अन्य तानवच्छेदात्) भेद का निश्चय न होने से (तुल्ययो:) तुल्य पदार्थों के (प्रतिपत्ति:) भेद का निश्चय (तत:) विवेकजज्ञान से होता है।।
व्याख्या :
भाष्य - अनुगत धर्म का नाम “जाति” असाधरण धर्म का नाम “लक्षण” र्पूव पश्चिमादि दिशा का नमा “देश” भेद का नाम “अन्यता” निश्चय ज्ञान का नाम “अवच्छेद” तथा “प्रतिपत्ति:” इससे विपरीत का नाम “अनवच्छेद” और जाति, लक्षण तथा देशद्वारा समान पदार्थों का नाम “तुल्य” है, जहां जाति आदिकों से दो समान पदार्थों के भेद का निश्चय नहीं हो सकता वहां उनका निश्चय विवेकज ज्ञान से होता है।।
भाव यह है कि लोक मे जो दो पदार्थों के परस्पर भेद का ज्ञान होता है वह जाति आदि के भेद द्वारा होता है, जैसा कि समान देश में स्थित तथा समान लक्षणवाले गौ और गवय के भेद का निश्चय गोत्वादि जाति से, समान लक्षण तथा समान देशवाली दो गौओं के भेद का निश्चय कपिलत्वादि लक्षण से ओर समान जाति तथा समान लक्षण वाले दो आमलों के भेद का निश्चय पूर्वादि देश से होता है कि यह आमला इस आमले से भिन्न है और जहां अन्य अर्थ में वयग्र हुए योगी के सन्मुख पूर्व तथा पश्चिम दिशा में स्थित उक्त आमलों के मध्य पश्चिम दिशा के आमले को भी पूर्व दिश में रख दिया जाय तो वहां जो उक्त दोनों आमलों के भेद का ज्ञान होता है कि यह आमला पश्चिम दिशा का है और यह पूर्व दिशा का है यह विवेकज ज्ञान से होता है, क्योंकि वहां पर जाति, लक्षण तथा देश के तुल्य होने से उनके द्वारा भेद का ज्ञान होना असम्भव है, इस प्रकार जाति, लक्षण तथा देश के द्वारा भेद का ज्ञान न होकर जो तुल्य पदार्थों के भेद का ज्ञान होता है वही विवेकज ज्ञान का फल है।।
सं० - अब विवेकज ज्ञान का स्वरूप कथन करते हैं:-