सूत्र :स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात् ॥॥3/50
सूत्र संख्या :50
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - स्थान्युपनिमन्त्रणे। सड्डस्मयाकरणं। पुनः। अनष्टिप्रसंगत्।
पदा० - (स्थान्युपनिमन्त्रणे) स्थानधारी महान् पुरूषों के निमन्त्रण करने पर (सड्डस्मयाकरणं) संग तथा स्मय नहीं करना चाहिये, (पुन:) इसलिये कि उसके करने से (अनिष्टप्रसंगत्) अनिष्ट की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - विषयासक्त महाऐश्वर्य्यशाली गृहस्थियों का नाम “स्थानी” समीप जाकर सत्कारपूर्वक प्रार्थना का नाम “उपनिमन्त्रण” प्रीति का नाम “संग” गर्व का नाम “स्पय” और जन्ममरणरूप संसारदुःख की प्राप्ति का नाम “अनिष्टप्रसगंत्” है, जब विषयानुरागी महाऐश्वर्य्यशाली गृहस्थी लोग समीप जाकर सत्कारपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना करें कि हे योगिन् ! आपके दर्शन पूर्व पुण्यों के प्रभाव से हुह हैं, आप कृपा करके हमारे गृह में निवास करें हम सब आपकी सेवा करेंगे, तब योगी प्रार्थना के वशीभूत हुआ उनके साथ प्रीति और अहो मरो योग प्रभाव ! कैसे ऐश्वर्यशाली लोग सत्कारपूर्वक मेरो आहान करते हैं, इस प्रकार का अपने चित्त में गर्व न करे, क्योंकि प्रीति आदि करने से योगभ्रष्ट हुआ योगी पुनः जन्ममरणरूप संसार दुःख को प्राप्त हो जाता है।।
सं० - अब और विभूति कथन करते हैं:-