सूत्र :तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् ॥॥3/49
सूत्र संख्या :49
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तद्वैराग्यात्। अपि। दोषबीजक्षये। कैवल्यम्।
पदा० - (तद्वैराग्यात्) उक्त ख्याति में वैराग्य होने से (दोषबीजक्षये) दोष बीज का नाश हो जाने पर (कैवल्यं) कैवल्य की (अपि) भी प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - परवैराग्य का नाम “वैराग्य” अविद्यादि पांच क्लेशों का नाम “दोष” और उनके संस्कारों का नाम “दोषबीज” है, इनसे उक्त क्लेश उत्पन्न होते हैं, जब योगी को विवेकख्याति में भी वैराग्य उत्पन्न हो जाता है तब इसके चित्त में अनादिकाल से रहनेवाले अविद्यादि क्केशों के संस्कार सर्वथा खय हो जाते हैं, उनके क्षय होने से योगी को सहज ही में असम्प्रज्ञातसमाधि की प्राप्ति हो जाती है और उसकी प्राप्ति होने से वह मुक्त हो जाता है।।
भाव यह हे कि विवेकख्याति बुद्धि का धर्म है और बुद्धि अनात्मा होने के कारण हेय है उपादेय नहीं, इस प्रकार का विचार जब योगी को उत्पन्न होता है जब उसको विवेकख्याति में भी वैराग्य उदय होता है और वैरागय के उदय होने से अनादिकाल से चित्त में विद्यमान दोषबीज क्षीण हो जाते हैं और उनके क्षीण हो जाने से चित्त अपनी प्रकृति में लीन हो जाता है, चित्त के लय हो जाने से चरितार्थ हुए गुण फिर संसार का आरम्भ नहीं करते, उनके संसाराम्भ न करने से आध्यात्मिकादि तीनों दुःखों से विनिर्मुक्त हुआ पुरूष परमात्मा के स्वरूपभूत आनन्द को भोगता है, इसी का नाम “कैवल्य” है।।
सं० - अब कैवल्य के साधन समाधि में प्रवृत्त हुए योगी को भावी विघ्रों की निवृत्ति का उपदेश करते हैं:-