सूत्र :सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च ॥॥3/48
सूत्र संख्या :48
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - सत्त्वपुरूषान्यताख्यातिमात्रस्य। सर्वभावधिष्ठातत्वं। सर्वज्ञातृत्वं। च।
पदा० - (सत्त्वपुरूपा ०) सत्त्वपुरूषान्यताख्यातिवाले योगी को (सर्वभावाधिष्ठातृत्वं) सर्वभावाधिष्ठातृत्व (च) और (सर्वज्ञातृत्वं) सर्वज्ञातृत्व की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - स्वार्थ संयम से उत्पन्न हुए पुरूषज्ञान का नाम “सत्त्वपुरूषान्यताख्याति” द्दढ़ अभ्यास द्वारा उक्त ज्ञान की परिपक अवस्था वाले योगी का नाम “सत्त्वपुरूषान्यताख्यातिमात्र” सर्व प्राणियों के स्वामी होने का नाम “सर्वाभावाधिष्ठातृत्व” तथा सर्व पदार्थों के तत्त्ववेत्ता होने का नाम “सर्वज्ञातत्व” है, जिस योगी का चित्त स्वार्थ संयमद्वारा उत्पन्न हुई सत्त्वपुरूषान्यताख्याति में प्रतिष्ठित होजाता है उसको सर्वभावाघिष्ठातृत्व तथा सर्वभावज्ञातृत्व यह दोनों सिद्धियें प्राप्त होती है।।
तात्पर्य्य यह है कि जो योगी द्दढ़ अभ्यास द्वारा आत्मज्ञान में स्थित चित्त हुआ प्रतिक्षण परमात्मानन्द का अनुभव करता है वह प्राणीमात्र का पूजनीय तथा सर्व पदार्थों का ज्ञाता हो जाता है जैसा कि:-
यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्व: कामयते यांश्वकामान्।
तं तं लोकं जायते तांश्व कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्मच्र्चयेद्भूतिकाम:।।
मुण्ड० ३।१।१०
आत्मनिखल्वरेद्दष्ठेश्रुतेमते विज्ञातइदँसर्वविदितम्। वृह० ६। ५। ६
इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में वर्णन किया है कि गृहस्थाश्रमी जिस २ लोक तथा जिस २ ऐश्वर्य्य की इच्छा करता है वह उसको आत्मज्ञ योगी की सेवा से प्राप्त हो सकते हैं, इसलिय ऐश्वर्य्य की कामना वाला गृहस्थ शुद्ध अन्तःकरण से श्रद्धा तथा सत्कारपूर्वक उसकी सेवा करे। १। हे मैत्रेया! श्रवण, मनन तथा निदिभ्यासनद्वारा जिसको आत्मा का ज्ञान होता है वह सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता हो जाता है । २। यह दोनों सिद्धियें योगियों की परिभाषा में “विशोका” नाम से कही जाती हैं, जिस योगी को यह प्राप्त होती हैं वह शोकरहित होकर संसाकर के उपकारार्थ भूमण्डल में स्वतन्त्रतापूर्वक विचरता है।।
सं० - अब विवेज्ञान का मुख्य फल कथन करते हैं:-