सूत्र :ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च ॥॥3/47
सूत्र संख्या :47
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तत:। मनोजवित्वं। विकरणभाव:। प्रधानजय:। च।
पदा० - (तत:) इन्द्रियजय से (मनोजवित्त्वं) मनोजवित्व (विकरणभाव:) विकरणभाव (च) और (प्रधानजय:) प्रधान जय की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - मन के समान इन्द्रियों की गति का नाम “मनोजवित्व” सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों की ग्रहणशक्ति का नाम “विकरणभाव” और इन्द्रियों की विषयप्रवणरूप प्रधान शक्ति के जयका नाम “प्रधानजय” है, जिस योगी को इन्द्रियजय की प्राप्ति होती है उसकी इन्द्रियें मन के समान शीघ्र वेगवाली तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों का ग्रहण करनेवाली होजाती हैं और उनकी विषयों में स्वतन्त्रतापूर्वक गमनशक्ति का सर्वथा अविभव होजाता है जिस के कारण वह यथाकाम विषयों में प्रवृत्त नहीं होसकतीं।।
यह तीनों सिद्धियें योगशास्त्र में “मधुप्रतीका” नाम से कही जाती हैं।
सं० - अब अन्य विभूति कथन करते हैं:-