सूत्र :ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत् तद्धरानभिघात्श्च ॥॥3/44
सूत्र संख्या :44
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तत:। अणिमादिप्रादुर्भाव:। कायसम्पत्। तद्धर्मानभिघात:। च।
पदा० - (तत:) भूतों के जय होने से (अणिमादिप्रादुर्भाव:) अणिमादि आठ सिद्धियों की प्राप्ति (च) और (कायसम्पत्) शरीर ऐश्वर्य तथा (तद्धर्मानभिघात:) भूतघम्मों के अनभिघात की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशितृत्व तथा यत्रकामावसायित्व, इन आठ सिद्धियों का नाम “अणिमादि” प्राप्ति का नाम “प्रादुर्भाव” देह ऐश्वर्य्य का नाम “कायसम्पत्” कठिनता, स्नेह, उष्णता, गति और अनावरणता, इन भूतधर्मो के साथ प्रतिकूल सम्बन्ध न होने का नाम “तद्धर्मानिभिघात” है, सूक्ष्म होने की सामथ्र्य को “अणिमा” लघु होने की सामथ्र्य को “लघिमा” महान् होने की सामथ्र्य को “महिमा” सर्व पदार्थों के प्राप्त करने की सामथ्र्य को “प्राप्ति” अमोघ इच्छा के उत्पन्न करने की सामथ्र्य को “प्राकाम्य” प्राणीमात्र को वश करने की सामथ्र्य को “वशित्व” ऐश्वर्य्य सम्पादन करने की सामथ्र्य का “ईशितृत्व” ओर सत्य संकल्प करने की सामथ्र्य को “यत्रकामावसयित्व” कहते हैं।।
जिस योगी को भूतजयरूप विभूति की प्राप्ति होती है उसको अणिमादि उक्त सिद्धियों तथा कायसम्पत् की प्राप्ति हो जाती है और पृथिवी का कठिनता धम्र, जल का स्नेह धर्म, अग्रि का उष्णता धर्म, वायु का गति धर्म और आकाश का अनावरणता धर्म, उसका प्रतिबन्धक नहीं होता अर्थात् स्वकार्य्य में प्रवृत्त हुए भूतजयी योगी को भूतों के कठिनतादि धर्मो का प्रतिकूल सम्बन्ध नहीं होता ।।
भाव यह है कि जिस योगी को पृथिवी आदि भूतों का वशीकार होगया है उसको इनसे यथोपयोग कार्य्य लेने के समय कठिनतादि धर्मों का प्रतिबन्ध नहीं होता और इनका प्रतिबन्ध न होने से निर्विघ्रतापूर्वक प्रवृत्त हुआ योगी सब काय्र्यो को सहज में ही सिद्ध कर लेता है।।
सं० - अब कायसम्पत् का निरूपण करते हैं:-