सूत्र :बहिरकल्पिता वृत्तिः महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षयः ॥॥3/42
सूत्र संख्या :42
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - वहि:। अकल्पितावृत्ति:। महाविदेहा। ततः। प्रकाशावरणक्षय:।
पदा० - (वहि:) शरीर के बाहर भीतर सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में (अकल्पितावृत्ति:) बिना संकल्प के स्थित हुई चित्तवृत्ति का नाम (महाविदेहा) महाविदेहा धारणा है (तत:) इस धारणा की प्राप्ति से (प्रकाशावरणक्षयः) बुद्धि के आच्छादिक क्केशादिकों का क्षय हो जाता है।।
व्याख्या :
भाष्य - मेरा मन ईश्वर में स्थित हो, इस प्रकार के संकल्प द्वारा ईश्वर में स्थित हुई चित्तवृत्ति का नाम “कल्पितविदेहा धारणा” और इसके विपरीत धारणा का नाम “महाविदेहा” है, बुद्धि का नाम “प्रकाश” और उसके आच्छादक रजोगुण तथा तमोगुण की अधिकता से होने वाले क्केश कर्म तथा विपाकत्रय का नाम “आवरण” और उसकी निवृत्ति का नाम “क्षय” है, जब योगी को संयम रूप अभ्यास की दृढ़ता से महाविदेहा धारणा की प्राप्ति होती है जब सत्त्वगुण की अधिकता के कारण रजोगुण तथा तमोगुण के अत्यन्त दब जाने से तन्मूलक क्लेशादिकों का सर्वथा क्षय हो जाता है और उनके क्षय होजाने से निवारण हुए बुद्धिरूप प्रकाश द्वारा योगी परमात्मानन्द का अनुभव करता है।।
भाव यह है कि चित्त अत्यन्त मलिन होने के कारण ईश्वर में स्थिर नहीं हो सकता, जब योगी यम नियमादिकों के अभ्यास से चित्त की निर्मलता को सम्पादन करता है तब उक्त संकल्प द्वारा ईश्वर में चित्तवृत्ति स्थिर होती जाती है जिसका नाम विदेहाधारणा है, इसी के पुन: २ अभ्यास से जब महाविदेहाधारणा की प्राप्ति होती है तब इसको ईश्वर के प्रसाद से शीघ्र ही क्केशादिकों के क्षयपूर्वक परमानन्द की प्राप्ति होती है।।
और जो आधुनिक टीकाकारों ने “वहि:” शब्द का अर्थ वहिर्देश करके उसमें बिना संकल्प चित्त की वृत्ति का नाम महाविदेहाधारणा कथन किया है यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसी महाविदेहाधारणा से प्रकाशावरणक्षरूप फल की प्राप्ति नहीं हो सकती, और जो सूत्रकार ने महाविदेहाधारणा से प्रकाशावरण का क्षय होना लिखा है इससे स्पष्ट पाया जाता है कि सूत्रकार को यहां वहिः शब्द से बहिर्देश अभिप्रेत नहीं किन्तु ईश्वर ही अभिप्रेत है और ईश्वर में बिना सकंल्प चित्तवृत्ति की स्थिरतारूप महाविदेहाधारणा से उक्त फल की प्राप्ति हो सकती है, जैसा कि:-
भिद्यतेहृदयग्रन्थिरिछद्यन्ते सर्वसंशया:।
क्षीयन्तेचास्यकर्माणि तस्मिन्द्दष्टेपरावरे ।। मुण्ड० २।२।८
इस उपनिषद्वाक्य में कहा है कि परमात्मा के साक्षात्कार होने से अविद्यादि क्केश, संशय तथा कर्म क्षीण होजाते हैं।।
और दूसरे “बहि:” शब्द को अन्तर शब्द का उपलक्षण मान कर अहिरन्तरवत्र्ती परमात्मा का वाचक मानने में कोई बाधा भी नहीं क्योंकि वेदोपनिषदादि शास्त्रों में परमात्मा को बाहर भीतर सर्वत्र परिपूर्ण होना विस्तार पूर्वक वर्णन किया है, जैसा कि:-
तदेजति तन्नौजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदुसर्ववस्यास्रूवाह्मत:।। यजु० ४०१५
दिवयोह्ममूर्त: पुरूष: स वाह्मभ्यन्तरो ह्मज:।
अप्राणो ह्ममना: शुभ्रो हाक्षरात्परतः परः ।। मुण्ड० २।२।६
इत्यादि श्रुतियों में स्पष्ट है कि वह परमात्मां सम्पूर्ण जगत् का कत्र्ता, स्वरूप् से अचल, सब से दूर तथा सब के समीप और सम्पूर्ण जगत् के बाहर भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है (१) वह परमात्मा मूर्ति तथा जन्म रहित और बाहर भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है, न उसके प्राण हैं न मन, वह शुद्ध परमपवित्र जगत्पिता परमात्मा प्रकृति और प्रकृति के काय्र्यो से परे है (२) इसलिये यहां “बहिः” शब्द का अर्थ जो आधुनिक टीकाकारों ने किया है वह आदरणीय नहीं।।
सं० - अब और विभूति कथन करते हैं:-