सूत्र :कायाकाशयोः संबन्धसंयमात् लघुतूलसमापत्तेश्चाकाश गमनम् ॥॥3/41
सूत्र संख्या :41
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - कायाकाशयो:। सम्बन्धसंयमात् । लघुतूलसमापत्ते:। च आकाशगमनम्।
पदा० - (कायाकाशयो:) शरीर और आकाश के (सम्बन्धसंयमात्) सम्बन्ध मे संयम करने से (च) और (लघुतूलसमापत्ते:) तूल के समान लघु पदार्थों में संयम करने से (आकाशगमन) आकाश गमन की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - पंचभौतिक शरीर का नाम “काय” है, जब योगी काय और आकाश के सम्बन्ध में संयम करता है ज बवह उसके वश में हो जाता है ओर सम्बन्ध को वश में कर लेने से लघु पदार्थों में संयम द्वारा शीघ्र ही शरीर के लघुभाव को प्राप्त हो जाता है उसके प्राप्त होने से योगी का स्वतन्त्रतापूर्वक आकाश में गमन होता है।।
भाव यह है कि जस २ स्थान में शरीर की स्थिति होती है वहां सर्वत्र आकाश भी विद्यमान है, क्योंकि अवकाश के बिना शरीर की स्थिति नहीं हो सकती और अवकाश देना आकाश का धर्म है, इस प्रकार आकाश के साथ जो शरीर का व्याप्य व्यापकभाव सम्बन्ध है उसको जब योगी संयम द्वारा जीत लेता है ओर लघु पदार्थों में संयम करने से लघु होने की शक्ति को सम्पादन करके लघुकाय हो जाता है तब उसको यथेष्ट आकाशगमन का लाभ होता है।।
सं० - अब और विभूति कथन करते हैं:-