सूत्र :श्रोत्राकाशयोः संबन्धसंयमात् दिव्यं श्रोत्रम् ॥॥3/40
सूत्र संख्या :40
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - श्रोत्राकाशयो:। सम्बन्धसंयमात्। दिव्यं । श्रोत्रम्।
पदा० - (श्रोत्राकाशयो:) श्रोत्र इन्द्रिय तथा आकाश के (सम्बन्धसंयमात्) सम्बन्ध में संयम करने से (श्रोंत्र) श्रोत्र इन्द्रिय (दिव्यं) अलौकिक समाथ्र्यवाला होजाता है।।
व्याख्या :
भाष्य - शब्द के ग्राहक इन्द्रिय का नाम “श्रोत्र” व्योम का नाम “आकाश”है, इन दोनों के सम्बन्ध में संयम करने से योगी को श्रोत्र इन्द्रिय की ऐसा अपूर्व सामथ्र्य का लाभ होता है कि जिस से वह अति सूक्ष्म शब्दों को भी सुन लेता है।।
भाव यह है कि स्थूल सूक्ष्म जितने शब्द उत्पन्न होते हैं उन सब का आधार आकाश है ओर उस आकाश का श्रोत्रइन्द्रिय के साथ सम्बन्ध है, जब योगी उस सम्बन्ध में संयम करता है जब वह संयम के प्रभाव से अति विस्तृत तथा आकाश के समान सूक्ष्म होजाता है और उसके विस्तृत तथा सूक्ष्म होने से सम्पूर्ण शब्दों का श्रवण सहज में ही जाता है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि जैसे श्रोत और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से योगी को दिव्य श्रोत्र की प्राप्ति होती है वैसे ही त्वचा और वायु, चक्षु और तेज, रसना और जल, घ्राण और पृथिवी के सम्बन्ध में संयम करने से दिव्य त्वक्, चक्ष, रसना तथा घ्राण इन्द्रियों की भी प्राप्ति होती है।।
सं० - अब अन्य विभूति कथन करते हैं:-