सूत्र :उदानजयाअत् जलपण्खकण्टकादिष्वसङ्गोऽत्क्रान्तिश्च ॥॥3/38
सूत्र संख्या :38
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - उदानजयात्। जलपड्डकण्टकादिपु। असड्ड:। उत्कान्ति:। च।
पदा० - (उदानजयात्) उदान के जय होजाने से (जलपड्डकण्टकादिषु) जल, पड्ड तथा कण्टकादि के साथ (असड्ड:) सड्डं नहीं होता (च) और (उत्कान्ति:) उदर्व्यगमन होता है।।
व्याख्या :
भाष्य- पांच प्राणों के मध्य एक प्राणविशेष का नाम “उदान” उदान के वश हो जाने का नाम “जय” और ऊदर्ध्वगति का नाम “उत्कान्ति” है, जब योगी संयमद्वारा उदान नामक प्राण को वश में कर लेता है जब उसको अपने शरीर तथा आत्मा की ऊर्द्ध्वगति का सामथ्र्य होजाता है जिससे वह जल पड्ड तथा कण्टकादिकों में संचार करता हुआ किसी बाधा को प्राप्त नहीं होता ओर मरण समय ऊर्दध्वगति को प्राप्त होता है।।
भाव यह है कि योग सिद्धान्त में समसत इन्द्रियो की जीवन नामक वृत्ति का नाम “प्राण” है और वह प्राण, समान, अपान, उदान, व्यान, इस क्रिया भेद से पांच प्रकार का है, जिसकी नासिका के अग्रभाग से लेकर हृदयपर्य्यन्त स्थिति और नासिका तथा मुख्द्वारा जिसकी गति आगति होती है उसको “प्राण” जो खाये पिये अन्नादि के परिणामरूप रस को यथास्थान समानरूप से पहुंचाता और हृदय से लेकर नाभिपर्य्यन्त जिसकी स्थिति है उसको “समान” जो मलमूत्र तथा गर्भादि को बाहर निकालता तथा नाभि से लेकर पादतल पर्य्यन्त जिसकी स्थिति है उसको “अपान” जो शरीर, आकाश तथा अन्नादि की ऊद्ध्र्वगति का हेतु और नासिका के अग्रमाग से लेकर शिर पर्य्यन्त जिसकी स्थिति है उसको “उदान” और जो शरीर शोथ का हेतु तथा सर्व शरीर में व्याप्त है उसको “व्यान” कहते हैं, जिस योगी ने उक्त पांचों प्राणों के मध्य उदान नामक प्राण का विजय करलिया है वह जल, पक्क तथा कण्ठकादि के ऊपर निःशंक गमन कर सकता है, गमन करते समय उनके साथ उसको बाधा देने वाला सड्डं भी नहीं होता क्योंकि उदान वायु के बल से शरीर तथा आत्मा की ऊर्द्ध्वगति का सामथ्र्य उसको प्राप्त है, जिस प्रकार जलादिको के ऊपर गमन करने में उदानजयी योगी स्वतन्त्र है इसी प्रकार आत्मा को ऊद्ध्र्वगति में भी स्वतन्त्र होजाता है, इसलिये उसको मरण समय में यथाकाम ऊद्ध्र्वगति की प्राप्ति होती है।।
सं० - अब और विभूति कहते हैं:-