DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :बद्न्हकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः ॥॥3/37
सूत्र संख्या :37

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - बन्धकारणशैथिल्यात्। प्रचारसंवेदनात्। च। चित्तस्य। परशरीरावेश:। पदा - (बन्धकारणशैथिल्यात्) संयमद्वारा शरीर में चित्त बन्धन के कारण धर्माधर्मरूप प्रारव्धकर्म की शिथिलता से (च) और (प्रचार संवेदनात्) नाड़ियों का ज्ञान होजाने से (चित्तस्य) चित्त का (परशरीरावेशः) दूसरे शरीर में प्रवेश होता है।।

व्याख्या :
भाष्य - शरीर के भीतर मन के सम्बन्ध विशेष को “बन्ध” धर्माधर्म रूप प्रारव्ध कम्र को “बन्धकारण” और बन्धन करने में सामथ्र्याभाव को “बन्धकारणशैयिल्य ” कहते हैं “ प्रचरति अनेन अस्मिन् वा इति प्रचारः”= मन के बाहर भीतर जाने आने का मार्गरूप जो नाड़ियें हैं उनका नाम “प्रचार” ओर उनके अपरोक्ष ज्ञान का नाम “प्रचारसंवेदन” है, जिस योगी को संयमद्वारा धन्धकारण की शिथिलता प्राप्त होती है और प्रचार का अपरोक्षज्ञान होता है उसके चित्त का दूसरे शरीर में अनायास ही प्रवेश हो जाता है।। भाव यह है कि आत्मा कूटस्थनित्य होने के कारण निष्किय है, उसका जो एक शरीर से दूसरे शरीर में आना जाना होता है, वह चित्त के सम्बन्ध से होता है स्वतन्त्र नहीं, और चित्त की जो शरीर में ज्ञान का हेतु स्थिति है वह धर्माधर्मरूप प्रारव्ध कर्म के आधीन हैं, इसलिये जब योगी संयमद्वारा शरीर में चित्त की स्थिति के हेतु धर्माधर्मरूप बन्धन का शिथिल कर देता है और चित्त के प्रचार से पूर्ण परिचित होजाता है तब एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करने के समय उक्त बन्धन प्रतिबन्धक नहीं होते और प्रचार का ज्ञान होजाने से योगी यथाकाम अपने चित्त के द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रविष्ट होजाता है।। निष्कर्ष यह है कि जीवात्मा पुरूष की जो इस शरीर में स्थिति है वह प्रारब्ध कर्म के आधीन है, जबतक प्रारब्ध कर्म प्रबल होकर भो दे रहे हैं तब तक जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता और जीवात्मा पुरूष का एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश भी चित्तप्रवेश के आधीन है चित्त का एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रविष्ट होना मार्गभूत नाड़ियों के बिना ज्ञान नहीं हो सकता इसलिये जिस योगी ने संयमद्वारा धर्माधर्मरूप प्रारब्ध कर्मों को बन्धन करने में असमर्थ कर दिया है और चित्तप्रचार की नाड़ियों से भलेप्रकार विज्ञ होगया है उसको वत्र्तमान शरीर के परित्याग पूर्वक दूसरे नूतन शरीर में प्रवेश करते समय कोई क्केश नहीं होता अर्थात् वह निर्विघ्रतापूर्वक यथाकाम एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है परन्तु उसका प्रवेश स्वच्छन्दता तथा निर्विघ्रतापूर्वक नहीं होता और योगी का इसके विपरीत स्वच्छन्दता तथा निर्विघ्नतापूर्वक होता है यह विशेषता है।। सं० अब और विभूति कथन करते हैं:-

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: fwrite(): write of 34 bytes failed with errno=122 Disk quota exceeded

Filename: drivers/Session_files_driver.php

Line Number: 263

Backtrace:

A PHP Error was encountered

Severity: Warning

Message: session_write_close(): Failed to write session data using user defined save handler. (session.save_path: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/system//cache)

Filename: Unknown

Line Number: 0

Backtrace: