सूत्र :ते समाधवुपसर्गाव्युत्थाने सिद्धयः ॥॥3/36
सूत्र संख्या :36
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - ते । समाधौ। उपसर्गा। व्युत्थाने। सिद्धय:।
पदा० - (ते) उक्त प्रातिभादि सिद्धियें (समाघौ) समादि में (उपसर्गा:) विघ्र हैं, और (व्युत्थाने) व्युत्थानकाल में (सिद्धय:) सिद्धियें हैं ।।
व्याख्या :
भाष्य- स्वार्थ संयम का नाम “समाधि” तथा विघ्र का नाम “उपसर्ग” है, उक्त स्वार्थ संयमरूप समाधि द्वारा जो योगी को पुरूषज्ञान से प्राम प्रातिभादिक षट् विभूतियें प्राप्त होती हैं वह विक्षिप्त चित्त के लिये ही ऐश्वर्य हैं समाहित चित्त के लिये नहीं, क्योंकि उसको वह पुरूष के साक्षात्कार में प्रतिबन्धक है, इसलिये स्वार्थसंयम में प्रवृत्त हुआ योगी इनकी प्राप्ति से अपने को कृतकृत्य न मान ले किन्तु इनसे दोषदृष्टि द्वारा उपराम होकर पुरूष साक्षात्कार के लिये स्वार्थसंयम का अभ्यास करे।।
सं० - पुरूष साक्षात्कार पर्य्यन्त ज्ञानात्मक विभूतियों का कथन करके अब कियारूप विभूतियों का निरूपण करते हैं:-