सूत्र :ततः प्रातिभस्रावाणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ॥॥3/35
सूत्र संख्या :35
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तत:। प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवात्र्ता:। जायन्ते।
पदा० - (तत:) उक्त संयमद्वारा पुरूषज्ञान से पूर्व (प्रातिभश्रा०) प्रातिभ, श्रावण, वेदना, आर्दश, आस्वाद और वात्र्ता यह छः विभूतियें (जायन्ते) प्राप्त होती हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों को साक्षात् करानेवाली मन की सामथ्र्य का नाम “प्रातिभ”दिव्य शब्दों का साक्षात् कराने वाली श्रोत्र इन्द्रिय की सामथ्र्य का नाम “”श्रावण” तथा दिव्य स्पर्श को साक्षात् कराने वाली त्वक् इन्द्रिय की सामथ्र्य का नाम “वेदना” दिव्यरूप का साक्षात् कराने वाली रसना इन्द्रिय की सामथ्र्य का नाम “आदर्श” दिव्यरस को साक्षात् कराने वाली रसना इन्द्रिय की सामथ्र्य का नाम “आस्वाद”और दिव्यगन्ध को साक्षात् कराने वाली घ्राण इन्द्रिय की सामथ्र्य का नाम “वात्र्ता”है, जो योगी स्वार्थसंयमरूप अभ्यास करता है उसको पुरूपज्ञान से प्रथम मन आदि छः इन्द्रियों की अपूर्व सामथ्र्य का लाभ होता है जिसके योगशास्त्र की परिभाषा में यथाकम प्रातिभादि नाम हैं।।
सं० - अब उक्त पट् विभूतियों को पुरूषज्ञान की प्राप्ति में विघ्र कथन करते हैं:-