सूत्र :प्रातिभाद्वा सर्वम् ॥॥3/32
सूत्र संख्या :32
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - प्रातिभात्। वा। सर्वम्।
पदा० - (वा) अथवा (प्रातिभात्) प्रातिभ के प्राप्त होने पर (सर्वम्) पूर्वोक्त सम्पूर्ण विभूतियें प्राप्त होती हैं।
व्याख्या :
भाष्य - विवेकज्ञान के कारणभूत संयम के दृढ़ अभ्यास द्वारा जो चित्त के विवेकज्ञान की उत्पत्ति से पूर्व अतीत, अनागत, सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों के ज्ञान की सामथ्र्य उत्पन्न होती है उसकी का नाम “प्रातिभ” है, इस प्रातिभ नामक मानस सामथ्र्य की प्राप्ति से योगी को पूर्वोक्त सम्पूर्ण विभूतियें स्वयमेव प्राप्त हो जाती है अर्थात् जिस प्रका सूर्य्य के उदय का चिन्ह प्रभा है इसी प्रकार विवेकाज्ञान के उदय का चिन्ह प्रातिभ है, जिस योगी को विवेकज्ञान के साधन स्वार्थप्रत्यय में संयम करने से उक्त सामथ्र्य का लाभ हो जाता है उसके लिये पूर्वोक्त संयमों की कोई आवश्यकता नहीं, उसको इसी बल से पूर्वोक्त सम्पूर्ण विभूतिये प्राप्त हो जाती हैं।।
तात्पर्य्य यह है कि जन्ममरणरूप संसार में दुःख निवृत्ति का उपाय होने से एकमात्र विवेकज्ञान ही सम्पूर्ण विभूतियों का सार है, जब योगी को संयम के प्रभाव से विवेकाज्ञान उदय के चित्तप्रसाद आदि चिन्हों का लाभ होता है तब उसका निश्चय हो जाता है किं अब अवश्यमेव मेरी चित्तगुफा में विवेकज्ञानरूपी सूर्य्य का उदय होगा, इस प्रकार के निश्चय से कृतकृत्य हुआ योगी सम्पूर्ण विभूतियों को प्राप्त हुआ मानता है अर्थात् कोई ऐसा विभूति नहीं जो उसको उस समय प्राप्त नहीं होती।।
सं० - अब और विभूति कथन करते हैं:-