सूत्र :नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ॥॥3/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - नाभिचक्रे। कायव्यूहज्ञानम्।
पदा० - (नाभिचक्रे) नाभिचक में संयम करने से (कायव्यूहज्ञानं) शरीरवत्र्ती सम्पूर्ण पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध विशेष का ज्ञान हो जाता है।।
व्याख्या :
भाष्य - जिन पदार्थों के सम्बन्धविशेष से शरीर की रचना हुई है उसका मूल स्थान नाभिचक है, इसलिये जब योगी संयमद्वारा उक्त चक्र का साक्षात्कार कर लेता है जब उसको शरीरवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध तथा उनके निवासस्थान का अपरोक्ष ज्ञान हो जाता है।।
भाव यह है कि शरीर में वात, पित्त, कफ, यह तीन दोष तथा त्वक्, रक्त, मांम्र, स्नायु, अस्थि, मज्जा, शुक, यह सात धातु हैं और इनसे शुक सब से आभ्यन्तर और शुक से बाहार मज्जा, मज्जा से अस्थि, अस्थि से स्नायु, स्नायु से मांस, मांस में रक्त तथा रक्त से बाहर त्वक् है, इस प्रकार शरीरगत पदार्थों के सम्बन्धविशेष का ज्ञान योगी को नाभिचक में संयम करने से प्राप्त होता है।।
सं० - अब और विभूति कहते हैं:-