सूत्र :मैत्र्यदिषु बलानि ॥॥3/22
सूत्र संख्या :22
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - मैन्न्यादिषु। बलानि।
पदा० - (मैन्न्यादिषु) मैत्री, करूणा, मुद्रिता, इन तीनों भावनाओं में संयम करने से (बलानि) मैत्री आदि बल की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य- सुखी प्राणियों में मैत्री भावना, दुःखी प्राणियों में करूणाभावना और पुण्यात्मा पुरूषों में मुदिताभावना का विधान प्रथम पाद में कर आये है, जो योगी इन तीनों भावनाओं में संयम करता है उसको इनके अनन्त गुणों का पूर्ण रूप से ज्ञान हो जाता है जिससे वह प्रतिक्षण मैत्री आदि के अनुष्ठान में तत्पर होकर अल्पकाल में ही मैत्री आदि के बल को प्राप्त कर लेता है।।
भाव यह है कि मैत्रीभावाना का संयमरूप दृढ़ अभ्यास करने से शीघ्र ही योगी को इस प्रकार के मैत्री बल की प्राप्ति हो जाती है कि जिसके प्रभाव से प्राणिमात्र उसका ओर वह प्राणिमात्र का मित्र हो जाता है और उसकी मित्रता सर्वदा के लिये अचल हो जाती है, इसी प्रकार जब करूणाभावाना का अभ्यास करता है अर्थात् स्वार्थ छोड़कार दुःखीमात्र के दुःख निवृत्त करने की इच्छा रखता है तब उसके अनन्त सहायक हो जाते हैं और उनके होने से करूणाल सहज में ही प्राप्त हो जाता है और उसके प्राप्त होने से दुःखी पुरूषों के दुःख की निवृत्ति के लिये किया हुआ प्रयत्नन कभी विफल नहीं होता, इसी प्रकार मुदिताभावना के संयम करने से अमोघ मुदिाताकाल की प्राप्ति होती है जिससे योगी खिन्नाचित्त पुरूषों को भी आनन्दित कर देता है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि उपेक्षारूप चित्तवृत्ति का आदि पद से ग्रहण इसलिये नहीं किया गया कि वह त्यागरूप है भावनारूप नहीं।।
सं० - अब और विभूति कहते हैं:-