सूत्र :संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥॥3/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - संस्कारसाक्षात्करणात्। पूर्वजातिज्ञानम्।
पदा० - (संस्कारसाक्षात्करणात्) संयम द्वारा संस्कारों के साक्षात्कार होने से (पूर्वजातिज्ञानं) पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।।
व्याख्या :
भाष्य - जिससे स्मृति, राग द्वेष तथा सुख, दुःख उत्पन्न होते हैं उस वासनाविशेष तथा धर्माधर्मरूप अदृष्ट का नाम “संस्कार” है अर्थात् स्मृति तथा रागद्वेष की जनक चित्त में रहने वाली वासना और सुख दुःखरूप भोग के जनक धर्माधर्मरूप प्रारव्ध कर्म, इन दोनों को संस्कार कहते है, जो योगी संयमद्वारा उक्त दोनों प्रकार के संस्कारों का साक्षात्कार कर लेता है उसको पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है कि मै पूर्वजन्म मे अमुक था, क्योंकि जिन संस्कारो का संयमद्वारा मुझको प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ है वह इस प्रकार के जन्म के बिना नहीं हो सकते, इसलिये निश्चय मेरा पूर्वजन्म अमुक देश में अमुक प्रकार का था।।
भाव यह है कि पूर्वजन्म में सम्पादन किये हुए संस्कार वासना तथा धर्माधर्मरूप से दो प्रकार के है, जिन संस्कारों से पूर्व अनुभव किये हुए पदार्थों में स्मृति, इच्छा तथा द्वेष उत्पन्न होता है उनको “वासना”और जिनसे जन्म, आयु तथा भोग की प्राप्ति होती है उनको “ धर्माधर्म ” कहते हैं, यह दोनों प्रकार के संस्कार जिस जाति के होते हैं उसी के समान पदार्थों की स्मृति तथा प्राप्ति आदि के हेतु होते हैं, यह नियम है, इसलिये संयम द्वारा उक्त संस्कारों के साक्षात्कार होजाने से योगी को अपने पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि जिस प्रकार योगी को संयम द्वारा स्वसंस्कारों के साक्षात्कार से अपने पूर्वजन्म का ज्ञान होजाता है, इसी प्रकार संयमद्वारा अन्य पुरूष के संस्कारों का साक्षात्कार हो जाने से अन्य पुरूष के पूर्वजन्म का भी ज्ञान होजाता है।।
सं० - अब और विभूति कथन करते हैं:-