सूत्र :शब्दार्थप्रत्ययामामितरेतराध्यासात्संकरः तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम् ॥॥3/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पदा०- शब्दार्थप्रत्ययानाम्। इतरेतराध्यात्। सड्डर:। पत्प्रविभावसंयमात्। सर्वभूतरूपतज्ञानम्।
पदा० - (शब्दांथप्रत्ययानां) शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय इन तीनों के (इतरेतराध्यासात्) परस्पर विभाग का ग्रहण न होने से (सड्डंर:) अविभक्तरूप से प्रतीति होती है (तत्प्रविभागसंयमात्) उनके विभाग में संयम करने से (सर्वभूतरूतज्ञानं) प्राणीमात्र की भाषा का ज्ञान होजाता है।।
व्याख्या :
भाष्य - गो आदि वाचक शब्दों का नाम “शब्द” उसके वाच्य व्यक्ति का नाम “अर्थ” अर्थगोचर बुद्धिवृत्तिरूप ज्ञान का नाम “प्रत्यय” परस्पर विभाग के अग्रहण का नाम “इतरेराध्यास” अभेद का नाम “सड्डर” और भेद का नाम “विभाग” है, शब्द का आश्रय कण्ठ तथा उदात्त, अनुदात्तादि धर्म, अर्थ का आश्रय भूमि तथा जड़त्वमूत्र्तत्वादि धर्म और ज्ञान का आश्रय चित्त तथा प्रकाश अमूत्र्तत्वादि धर्म, है, इस प्रकार आश्रय तथा धर्मो के भिन्न होने से शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय यह तीनों स्वरूप से परस्पर नितान्त विभक्त हैं परन्तु इतरेतराध्यास के कारण सर्व साधारण को अविभक्त प्रतीत होते हैं अर्थात् भेद के प्रयोजक सम्बन्ध का ग्रहण न होने के कारण एक ही आकार से तीनों का भान होता है।।
जब योगी सूक्ष्म दृष्टि से इन तीनों के विभाग को जान कर उसमें संयम करता है तब उसके साक्षात्कार हो जाने से इसको अपने सजातीय सर्वप्राणियों की भाषा का यथार्थ ज्ञान उदय होता है।।
तात्पर्य्य यह है कि शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय इन तीनों का परस्पर भेद होने पर भी भेद के प्रयोजक वाच्य-वाचकभाव तथा विषय-विषयीभावरूप सम्बन्ध का ग्रहण न होने से अग्निलोहपिण्ड की भांति सड्डंर प्रतीत होता है जिसके कारण भाषामात्र के शब्दों का श्रवण करने पर भी मनुष्य को अर्थ का ज्ञान नहीं होता, जब योगी किसी एक भाषा के शब्दादि तीनों का उक्त सम्बन्ध संयमद्वारा साक्षात् कर लेता है जब उसको इस प्रकार की अपूर्वप्रज्ञा का लाभ होता है जिससे वह मनुष्य मात्र की भाषामात्र का पूर्णज्ञाता हो जाता है क्योंकि जैसा एक भाषा के शब्दों का अर्थो और अर्थो का ज्ञान के साथ सम्बन्ध है वैसा ही दूसरी भाषा के शब्दों का अर्थ के साथ और अर्थो का ज्ञान के साथ सम्बन्ध है और शब्दों के स्वरूप का परस्पर किंचिद् भेद होन पर भी वस्तुतः भेद नहीं, क्योंकि उनकी बनावट सर्वभाषाओं में एक जैसा और अर्थ भी समान है।।
निष्कर्ष यह है कि सर्व विद्या का मूल एक वेदमय शब्द है, जो योगी संयम द्वारा वेद के सम्पूर्ण शब्दों, अर्थों तथा अर्थ गोचर प्रत्ययों का धर्म और स्वरूप से साक्षात्कार कर लेता है वह सर्व विद्या का ज्ञाता होजाता है।।
सं० - अब संयमसाध्य अन्य विभूति कथन करते हैं:-