सूत्र :कायरूपसंयमात् तत्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुः प्रकाशासंप्रयोगेऽन्तर्धानम् ॥॥3/20
सूत्र संख्या :20
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - कायरूपसंयमात्। तद्ग्राह्मशक्तिस्तम्भे। चक्षुः प्रकाशासम्प्रयोगे। अन्तद्र्धानम्।
पदा० - (कायरूपसंयमात्) संयमद्वारा शरीर के रूप की (तद्ग्राह्मशक्तिस्तम्भे) ग्राह्मशक्ति का प्रतिबन्ध होने पर चक्षुःप्रकाशसम्प्रयोगे) नेत्र का सम्बन्ध न होने से (अन्तद्र्धानम्) अन्तद्र्धान की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य - दृष्टिगोचर न होने का नाम “अन्तद्र्धान” सम्बन्ध का नाम “सम्प्रयोग” है और असम्बन्ध का नाम असम्प्रयोग है प्रत्यक्ष होने की योग्यता को “ग्राह्मशक्ति” और प्रतिबन्ध को “स्तम्भ” कहते हैं, जब योगी संयमद्वारा रूप का साक्षत्कार कर लेता है तब उसको उसके परिवत्र्तन की अपूर्व सामथ्र्य का लाभ होता है जिससे वह रूप की ग्राह्मशक्ति का स्तम्भ कर देता है ओर रूप की ग्राह्मशक्ति का स्तम्भ हो जाने से अन्य पुरूष के नेत्र का उसके साथ सम्बन्ध नहीं होता और सम्बन्ध न होने से सन्मुख विद्यमान हुआ भी योगी का शरीर नहीं दीखता।।
भाव यह है कि रूप में जो ग्राह्मशक्ति है वह संयम के बल से योगी के वश में हो जाती है शक्ति के वश में होजाने से योगी अपने शरीर को उस रूप से दिखाने अथवा न दिखाने में स्वतन्त्र होजाता है अर्थात् जब वह चाहता है कि अमुक पुरूष मुझको न देखे तब वह रूप की ग्राह्मशक्ति का शीघ्र ही प्रतिबन्ध करलेता है जिससे वह सन्मुख विद्यमान हुआ भी उस रूप से नहीं दीखता ओर योगी को उस रूप से न देखने से अन्य पुरूष जान लेता है कि अब योगी अपनी इच्छा से अन्तद्र्धान होगया है, यही अन्तद्र्धान रूप संयम की सिद्धि का फल है।।
और जो आधुनिक टीकाकार इस सूत्र का यह आशय वर्णन करते हैं कि रूप के संयमद्वारा योगी सर्वथा अपने शरीर को अन्तद्र्धान कर देता है यह कदापि नहीं होसकता, क्योंकि सूत्र में स्पष्ट लिखा है कि संयम द्वारा केवल रूप की ग्राह्म शक्ति का प्रतिबन्ध मात्र होता है न कि योगी के शरीर में रूप रहता ही नहीं, यदि सूत्र का आशय रूप का सर्वथा न रहना होता तो अवश्य योगी के शरीर का सर्वथा अन्तद्र्धान होना सड्डंत होसकता, परन्तु जब रूप की ग्राह्मशक्ति का प्रतिबन्ध मात्र होना लिखा है तो इससे स्पष्ट पाया जाता है कि योगी अपने प्रथमरूप की ग्राह्मशक्ति का परिवत्र्तन करके अन्यरूप से सन्मुख स्थित होजाता है, इसलिये रूपान्तर से विद्यमान हुआ भी योगी का शरीर प्रथमरूप से अविद्यमान होने के कारण दूसरे को दृष्टिगोचर नहीं होता और दृष्टिगोचर न होने से ही योगी का अन्तद्र्धान होना कहा जाता है यही मानना समीचीन है, और इस सूत्र का भाष्य देखने से भी उक्त आशय ही स्पष्ट होता है, इसलिये सूत्र के आधार से योगी के शरीर का सर्वथा अन्तद्र्धान मानना ठीक नहीं।।
यहां इतना स्मरण रहे कि जिस प्रकार रूप में संयम करने से योगी को रूप की ग्राह्मशक्ति के स्तम्भन करने की सामथ्र्य हो जाती है इसी प्रकार शब्द, स्पर्श, रस तथा गन्ध में संयम करने से शब्दादिकों की ग्राह्मशक्ति स्तम्भन करने की समाथ्र्य भी योगी को प्राप्त हो जाती है जिसके कारण योगी के शब्दादिकों को कोई श्रोत्रादि से ग्रहण नहीं कर सकता, इसका भी यही भाव है कि संयम के बल से योगी को शब्दादिकों के परिवत्र्तन की सामथ्र्य प्राप्त हो जाती है, सामथ्र्य के प्राप्त हो जाने से जैसा वह चाहता है वैसा ही अपने शब्दादिकों को कर सकता हे, अतएव जब वह अपने शब्दादिकां का परिवत्र्तन कर देता है तब श्रोत्रादिकों के द्वारा पूर्ववत् शब्दादिकों के ग्रहण न होने से योगी के शब्दादि का अन्तद्र्धान कहा जाता है।।
सं० - अब और विभूति कथन करते हैं:-