सूत्र :प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ॥॥3/19
सूत्र संख्या :19
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - प्रत्ययस्य । परचित्तज्ञानम्।
पदा० - (प्रत्ययस्य) संयमद्वारा पर पुरूष की चित्तवृत्ति का साक्षात्कार होने से (परचित्तज्ञानं) पर के चित्त का ज्ञान होता है।।
व्याख्या :
भाष्य- पर पुरूष की चित्तवृत्ति का नाम “प्रत्यय” है, जब योगी पर पुरूष की चित्तवृत्ति में संयम करने से उसका साक्षात्कार लेता है तब इसको आशयसहित पर के चित्त का ज्ञान होजाता है कि इस समय इस पुरूष का चित्त अमुक प्रकार का और अमुक आशयवाला है, क्योंकि अमुकप्रकार का हुए बिना इसकी इस प्रकार की वृत्ति कदापि उत्पन्न नहीं हो सकती।।
भाव यह है कि जिस योगी को संयमद्वारा पर पुरूष की चित्तवृत्ति का साक्षात्कार होता है उसको उसके चित्त का ज्ञान सहज में ही होजाता है, क्योंकि जो चित्त में भाव है उसके अनुसार ही चित्तवृत्तियें उदय होती हैं अर्थात् पदार्थों के रागी पुरूष की पदार्थों को और वीतराग पुरूष की परमात्मा को विषय करनेवाली वृत्तियें उत्पन्न होती है जिनसे उनके चित्त का पूर्णरूप से ज्ञान हो जाता है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि आधुनिक टीकाकारों ने इस सूत्र के आगे “न च तत्सालम्पनं तस्या विषयीभूतत्वात्” इसप्रकार सूत्र की कल्पना करके यह व्याख्या की है कि परपुरूष की चित्त-वृत्ति का साक्षात्कार होने पर भी योगी का उसके विषय का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि संयम केवल चित्तवृत्ति विषयक किया गया है विषय सहित चित्तवृत्ति विषयक नहीं, यह उनकी भूल है, क्योंकि वृत्तियें विषय के बिना उत्पन्न्स नहीं होसकतीं, और दूसरे जब योगी को संयम द्वारा वृृत्ति का साक्षात्कार होगया तब यह कदापि नहीं हो सकता कि उसको उसके विषय का ज्ञान न हो, क्योंकि विषय सहित वृत्ति के साक्षात्कार ही से आशय सहित पर के चित्त का ज्ञान होसकता है, इसलिय उक्त सूत्र की कल्पना करना सर्वथा अयुक्त है ओर योगभाष्य के वार्तिककर्ता विज्ञानभिक्षु ने भी इस कल्पितसूत्र की व्याख्या भाष्य की पाठ मानकर की है, इससे भी स्पष्ट है कि यह सूत्र नहीं किन्तु आधुनिक टीकाकारों की कल्पना-मात्र है।।
सं० - अब अन्य विभूति कथन करते हैं:-