सूत्र :ततः पुनः शातोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः ॥॥3/12
सूत्र संख्या :12
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तत:। पुन:। शान्तौदितौ। तुल्यप्रत्ययौ। चित्तस्य। एकाग्रतापरिणाम:।।
पदा० - (तत:) सर्वार्थता के क्षय होने पर (पुन:) फिर (चित्तस्य) चित्त में (तुल्यप्रत्ययौ) समान प्रकार के (शान्तोदितौ) अतीत तथा वत्र्तमान श्रत्ययों के उदय का नाम (एकाग्रतापरिणाम:) एकाग्रतापरिणाम है।।
व्याख्या :
भाष्य - अतीत का नाम “शान्त” वत्र्तमान का नाम “उदित” और एक ही विषय में होनेवाले प्रत्ययों का नाम “तुल्यप्रत्यय” है वृत्ति, प्रत्यय यह दोनों पय्र्याय शब्द हैं, जिस परिणाम में चित्त की प्रथमवृत्ति के समान ही दूसरी और दूसरी के समान ही तीसरी, इस प्रकार अतीत वत्र्तमान वृत्तियें तुल्य उत्पन्न होती हैं उस का काभ “ एकाग्रतापरिणाम” है अर्थात् जिसप्रकार समाधिपरिणाम में प्रथम सर्वार्थताप्रत्यय और उसके निवृत्त होने पर एकाग्रताप्रत्यय विलक्षण उत्पन्न होता है इसप्रकार एकाग्रतापरिणाम में नहीं, किन्तु उसके विपरीत दृढ़अभ्यास के बल से जिस विषय विषयक प्रथम प्रत्यय उत्पन्न हुआ है उसके शान्त होने पर उसी विषय विषयक दूसरा और उसके शान्त होने पर तीसरा और फिर चैथा इस प्रकार समान प्रत्यय उत्पन्न होते हैं उसको “ एकाग्रतापरिणाम” कहते हैं।।
तात्पर्य्य यह है कि व्युत्थान प्रत्यय के निवृत्त होने पर चित्त में एकतान प्रत्ययों के उदय का नाम एकाग्रतापरिणाम है।
यहां इतना स्मरण रहे कि योगी के चित्त का उक्त परिणाम तब तक ही होता रहता है जब तक वह समाधि में स्थित है समाधि से उत्थान होने पर क्केश के हेतु विक्षेपप्रत्यय पुनः उत्पन्न हो जाते है, इसलिये सम्प्रज्ञातसमाधि की प्राप्ति होने पर ही योगी अपने आपको कृतकार्य्य न माल ले किन्तु विक्षेप प्रत्ययो की अत्यन्त निवृत्ति के लिये अभ्या समें तत्पर हुआ निरोधसमाधि का सम्पादन करे।।
सं० - अब चित्त की भांति भूतादिक पदार्थों में भी उक्त तीन प्रकार के परिणामों का निरूपण करते हैं:-