सूत्र :सर्वार्थता एकाग्रातयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः ॥॥3/11
सूत्र संख्या :11
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - सर्वार्थतैकाग्रतयो:। क्षयोदयौ। चित्तस्य। समाधिपरिणामः।
पदा० - (चित्तस्य) चित्त में होने वाले (सर्वार्थतैकाग्रतयो:) विक्षिप्तता तथा एकाग्रता के (क्षयोदयौ) नाश और आविर्भाव का नाम (समाधिपरिणाम:) समाधिपरिणाम है।।
व्याख्या :
भाष्य - प्रतिक्षण अनेक विषयों में चित्त के गमन का नाम “सर्वार्थता” और एक ईश्वर में चित्त की स्थिति का नाम “एकाग्रता” है, तिरोभाव का नाम “क्षय” तथा प्रादुर्भाव का नाम “उदय” है, जब योगी को सम्प्रज्ञातसमाधि प्राप्ति होती है तब समाहित चित्त में सर्वार्थता-धर्म के क्षयपूर्वक जो एकाग्रताधर्म उदय होता है उसको “समाधिपरिणाम” कहते है।।
भाय यह है कि सम्प्रज्ञातसमाधि में सर्वार्थताधर्म के क्षयपूर्वक एकाग्रताधर्म का उदयरूप चित्त परिणाम है, इस समाधिपरिणाम तथा पूर्वोक्त निरोध परिणाम में इतना भेद हें कि निरोध परिणाम में व्युत्थानसंस्कारों का अभिभव तथा निरोधसंस्कारों का प्रादुर्भाव और समाधिपरिणाम में संस्कार के जनक व्युत्थान का क्षय तथा एकाग्रताधर्म का आविर्भाव होता है।।
सं० - अब एकाग्रता परिणाम का लक्षण कथन करते हैं:-