DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥॥1/7
सूत्र संख्या :7

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद०- प्रत्यक्षानुमानागमाः । प्रमाणानि । पदा० - (प्रत्यक्षानुमानागमाः) प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, यह तीन (प्रमाणिन) प्रमाण हैं।।

व्याख्या :
भाष्य - “प्रमीयतेऽर्थोयेन तत्प्रमाणम्”=जिससे विषय का याथर्थ ज्ञान हो उसको “प्रमाणवृत्ति” कहते हैं अर्थात् प्रमा=यथार्य ज्ञान के असाधारण कांरण का नाम “प्रमाणवृत्ति” है।। चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होकर अनधिगत = अज्ञात तथा अंवाधित = सत्य अर्थ को विषय करनेवाली चित्तवृत्ति को “प्रत्यक्ष प्रमाण” कहते हैं अर्थात् चक्षु आदि इन्द्रियों का जब घटपटादि वाहृा पदार्थों के साथ संयोगादि सम्बन्ध होता है तब उनके द्वारा चित्त का भी सम्बध होने से घटोऽयं=यह घट है, पढोऽयं = यह पट है, इस आकारवाली जो चित्त की वृत्ति उत्पन्न होती है उसको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। यहां यह भी जानना आवश्यक है कि प्रतयक्ष प्रमाणवृत्ति के विषय में आचाय्र्यों के दो मत हैं, एक यह कि बुद्धि की वृत्ति चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा बाहर जाकर घटपटादि अर्थ को ग्रहण करती हुई पुरूष को दिखाती है, दूसरा यह कि वाहृां विषय प्रथम चक्षु आदि इन्द्रियों में प्रतिबिम्बत होकर पश्चात् बुद्धि में प्रतिबिम्बित होते हैं और बुद्धि में ही उत्पन्न हुई तदाकार वृत्ति सम्पूर्ण विषय पुरूष को दिखाती है, इनमें प्रथमपक्ष प्राचीनों और द्वितीय-पक्ष नवीनों का है, परन्तु वैदिकसिद्धान्त में उक्त दोनों पक्ष माननीय हैं। लिड्ढपरामर्श ’ द्वारा उत्पन्न होकर अनाधगत तथा क्षवाधित अर्थ को सामान्यरूप में विषय करनेवाली चित्तवृत्ति को “अनुमान” कहते हैं अर्थात् जो वस्तु चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न हुई चित्तवृत्ति से नहीं जानी गई किन्तु हेतु ज्ञान के अनन्तर उत्पन्न हुई चित्तवृत्ति के द्वारा सामान्यरूप से जानी जाय उसको अनुमान कहते हैं। आप्तपुरूष प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से जाने हुए जिस अनधिगत, अवाधित अर्थ का उपदेष जिस शब्द द्वारा करता है उस शब्द से उत्पन्न हो कर अर्थ को विषय करनेवाली चित्तवृत्ति को “शब्द प्रमाण” कहते हैं।। इन तीनों प्रमाणों से जो पुरूष को ज्ञान होता है वह फलप्रमा तथा पौरूपेय बोध कहलाता है अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द प्रमाण से पुरूष को “घटहंजानामि”= मैंने घट को जाना, इस आकार वाला जो यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है उसका नाम पौरूपेयबोध तथा फलप्रमा है, यह संक्षेप से प्रत्यक्षादि प्रमाणों का लक्षण किया गया, इसका विस्तार “सांख्यार्य्यभाष्य” में भलेप्रकार किया है विषेश जाननेवाले वहा देखलें।। सं० - अब विपर्यय का लक्षण करते है:-

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