सूत्र :तस्य भूमिषु विनियोगः ॥॥3/6
सूत्र संख्या :6
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तस्य । भूमिपु । विनियोग:।
पदा० - (तस्य) संयम का (भूमिपु) सवितर्क आदि योगभूमियों में (विनियोग:) विनियोग है।।
व्याख्या :
भाष्य - विनियोग नाम सम्बन्ध का है, प्रथमपाद में सवितर्क, निवितर्क आदि भेद से चार प्रकार की योगभूमियों का निरूपण किया है उन भूमियों में संयम का सम्बन्ध होने से योगी को प्रज्ञालोक की प्राप्ति होती है।।
तात्पर्य्य यह है कि प्रज्ञालोक की प्राप्ति के लिये प्रथम योगी संयम द्वारा सवितर्कसमाधि की स्थिरता का सम्पादन करे और उसके स्थिर होजाने से निर्वितर्क, सविचार तथा निर्विचार समाधि की स्थिरता के लिये संयम करे, इस प्रकार पूर्व २ भूमि की स्थिरता के अनन्तर उत्तरोत्तर भूमि की स्थिरता के लिये उक्त भूमियों में संयम के सम्बन्ध का नाम ही “विनियोग” है और इसी का फल प्रज्ञालोक है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि जिस योगी को ईश्वरकृपा वा महा पुरूषों के अनुग्रह से प्रथम ही उत्तर भूमि की सिद्धि होगई है उसको नीचे की भूमियों में संयम करने की कोई आवश्यकता नहीं, केवल स्वप्रयत्ननिर्भर योगी के लिये ही पूर्व २ भूमिजय के अनन्तर उत्तरोत्तर भूमि के विजयार्थ संयम अपेक्षित है।।
सं० - अब धारणदि तीनों को सम्प्रज्ञातयोग का अन्तरग्डं साधन कथन करते हैं:-