सूत्र :तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारत् ॥॥3/10
सूत्र संख्या :10
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तस्य। प्रशान्तवाहिता । संस्कारात्।
पदा० - (संस्कारात्) निरोधरूप संस्कारों से (तस्य) चित्त को (प्रशान्तवाहिता) प्रशान्तवाहितां की प्राप्ति होती है।।
व्याख्या :
भाष्य -व्युत्थानसंस्काररूप मल से रहित निरोधरूप संस्कारों की उत्तरोत्तर अविच्छिन्न परम्परा का नाम “प्रशान्तवाहिता” है अर्थात् पुनः २ अभ्यास के बल से व्युत्थान संस्कारों के सर्वथा पिरोभाव होजाने पर जो निरोध संस्कारों के अविच्छिन्न निर्मल प्रवाह में योगी के चित्त की स्थिति होती है उसी को प्रशान्तवाहिता कहते हैं, यही प्रादुर्भूत हुए निरोध संस्कारों का फल है।।
यहां इतना स्मरण रहे कि व्युत्थानसंस्कार तथा निरोधसंस्कार यह दोनों परस्पर अत्यन्त विरोधी हैं, यदि योगी प्रमाद से अभ्यास द्वारा प्रादुर्भूत हुए निरोधसंस्कारों की प्रबलता को सम्पादन न करसके तो उनसे व्युत्थानसंस्कारों का तिरोभाव नहीं होगा औरन उसके न होने से उक्त फल की प्राप्ति भी न होगी, इसलिये योगी को उचित है कि वह प्रादुर्भूत हुए निरोधसंस्कारों का ऐसा अभ्यास करे कि वह नितान्त प्रबल होजायं और उनके प्रबल होने से व्युत्थानसंस्कारों का तिरोभाव होजाय।।
सं० - अब सम्प्रज्ञातसमाधि में होनेवाले चित्तपरिणाम का कथन करते हैं:-