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योग दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : योग दर्शन
 
Language

Darshan

Shlok

सूत्र :व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोः अभिभवप्रादुर्भावौ निरोधक्षण चित्तान्वयो निरोधपरिणामः ॥॥3/9
सूत्र संख्या :9

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द

अर्थ : पद० - व्युत्थानानिरोधसंस्कारयो:। अभिभवप्रादुर्भावौ। निरोधक्षण चित्तान्वय:। निरोधपरिणाम:। पदा० - (निरोधक्षणचित्तान्वय:) निरूद्धचित्त में होनेवाले (व्युत्थाननिरोधसंस्कारयो:) सम्प्रज्ञात तथा परवैराग्यजन्य संस्कारों के (अभिभवकप्रादुर्भावौ) तिरोभाव और आविर्भाव का नाम (निरोधपरिणाम:) निरोधपरिणाम है।।

व्याख्या :
भाष्य - जेसे सम्प्रज्ञातसमाधि की अपेक्षा क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, यह तीनों चित्तभूति व्युत्थान है, वैसे ही असम्प्रज्ञातसमाधि की अपेक्षा सम्प्रज्ञात भी व्युत्थान है, इसीलिये यहां सम्प्रज्ञातसमाधि का नाम “व्युत्थान” और परवैराग्य का नाम “निरोध” है क्योंकि इसी के उदय होने से सम्प्रज्ञात का निरोध होता है, प्रतिक्षण क्षय कनाम “अभिभव” और प्रतिक्षण उदय का नाम “प्रादुर्भाव” है, अभिभव, तिरस्कार, क्षय, दवजाना यह ओर प्रादुभाव, आविर्भाव, उदय, अभ्युदय, प्रकट होना यह पय्र्याय वाची शब्द हैं, जिस क्षण में निरोध विद्यमान है उसको “निरोपक्षण” उसमें होनेवाले चित्त को “निरोधक्षणचित्त” और व्युत्थान तथा निरोधजन्य संस्कारों के साथ धर्मीरूप से होनेवाले उक्त चित्त के सम्बन्ध को “निरोधक्षणचित्तान्वय” कहते है, जिस क्षण में चित्त निरोध को प्राप्त है उस निरोधक्षणचित्त धर्मी में जो प्रतिक्षण व्युत्थान संस्कारों का क्षय और निरोधजन्य संस्कारों का प्रादुर्भाव होतेा हे उसी का नाम निरोधकाल में होने के कारण “निरोधपरिणाम” है।। भाव यह है कि असम्प्रज्ञातसमाधिकालीनचित्तधर्मी में जो प्रतिक्षण व्युत्थान संस्कारों का क्षय और निरोधसंस्कारों का प्रादुर्भाव होता है उसको निरोधपरिणाम कहते हैं।। यहां इतना स्मरण रहे कि धर्म, लक्षण तथा अवस्था भेद से परिणाम तीन प्रकार का है और वा सम्पूर्ण जड़ पदार्थों में नियम से होता है, जैसा कि “सर्वेभावा: क्षणपिरणामिन ऋतेचिच्छक्ते:”= चेतनशक्ति पुरूष के बिना सम्पूर्ण पदार्थ क्षणपरिणामी हैं, विद्यमानधर्मी में पूर्वधर्म के अभिभवपूर्वक धर्मान्तर के प्रादुर्भाव का नाम “धर्मपरिणाम” है अर्थात् “धर्मे: परिणामो धर्म परिणाम: =धर्मो के अभिभव तथा प्रादुर्भावपूर्वक जो धर्मी का परिणाम है उसको धर्म-परिणाम कहते हैं।। तात्पर्य्य यह है कि मृत्तिका, सुवर्णारिूप धर्मी क विद्यमान होने पर जो उसमें कपाल, स्वस्तिकादिरूप पूर्वधर्म के तिरोभाव पूर्वक घट, रूचक आदिरूप धर्मान्तर का प्रादुर्भाव होता है उस का नाम धर्मपरिणाम है।। कारणरूप तथा स्वरूप से विद्यमान धर्मो को अनागत आदि काल के परित्यागपूर्वक वत्र्तमान आदि काल की प्राप्ति का नाम “लक्षणपरिणाम” है अर्थात् “लक्ष्येत= व्यायत्र्यतेधर्मोधर्मान्तरादनेन, तल्लक्षण, तेन धर्माणांपरिणामोलक्षणपरिणाम:”= जो एक धर्म को दूसरे धर्म से भिन्न करता है उस अनागत, वत्र्तमान तथा अतीत काल का नाम “लक्षण” है, उसके द्वारा जो घट, रूचक आदि धर्मो में अनागतकाल के परित्याग पूर्वक वत्र्तमानकाल का ग्रहणरूप अथवा वत्र्तमान काल के परित्यागपूर्वक अतीतकाल का ग्रहणरूप परिणाम है उसकी को लक्षणपरिणाम कहते है।। वत्र्तमान धर्मो में प्रथम अवस्था के परित्यागपूर्वक दूसरी अवस्था की प्राप्ति का नाम “अवस्थापरिणाम” है अर्थात् “वत्र्तमानलक्षणानां धर्माणामवस्थाभि: परिणाम: अवस्थापरिणाम:”=वत्र्तमान धर्मो का जो प्रतिक्षण नूतनता आदि पूर्व २ अवस्था को छोड़कर पुराणता आदि उत्तर २ अवस्था को प्राप्त होना है उसी को अवस्था के द्वारा होने के कारण अवस्थापरिणाम कहते है; और सूत्र में जो निरोध परिणाम कथन किया है वह धर्म परिणाम है, क्योंकि चित्तरूप धर्मी के विद्यमान होने पर व्युत्थानसंस्काररूप पूर्वधर्म के अभिभव पूर्वक निरोध संस्काररूप धर्मान्तर का प्रादुर्भाव होता है और निरोध संस्काररूप धर्म को जो अनागत काल के परित्यागपूर्वक वत्र्तमान काल का लाभ होता है उसको लक्षणपरिणाम कहते हैं, और निरोध संस्कारों को जो अपनी पूर्व २ अवस्था के त्यागपूर्वक उत्तरोत्तर वलवत्तरादि अवस्था की प्राप्ति होती है वह अवस्थापरिणाम है।। सं० - अब प्रादुर्भूत हुए निरोधसंस्कारों का फल कथन करते हैं:-