सूत्र :तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिवसमाधिः ॥॥3/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - तत् । एव। अर्थमात्रनिर्भासं । स्वरूपशून्यं। इव। समाधि:।
पदा० - (स्वरूपशून्यं, इव) अपने ध्यानात्मकरूप से रहित (अर्थमात्रनिर्भासं) केवल ध्ययेरूप से प्रतीत होनेवाले (तत्एव) उक्त ध्यान का ही नाम (समाधि:) समाधि है।।
व्याख्या :
भाष्य - जैसे रक्तपुष्प की समीपता से स्फटिकमणि अपने श्वेतरूप को त्यागर केवल पुष्प के रक्तरूप से रक्त प्रतीत होती है वैसे ही जब ध्यान भी प्रतिदिन के अभ्यास द्वारा अपने ध्यानात्मक रूप को त्यागकर केवल ध्येयरूप से प्रतीत होता है जब उसको “समाधि” कहते हैं।।
भाव यह है कि चित्त की जिस एकाग्र अवस्था में ध्याता, ध्यान, ध्येय रूप त्रिपुटी का मान होता है उसको ध्यान और केवल ध्येय के भान को समाधि कहते हैं और जिस अवस्था में योगी को उक्त समाधि के अभ्यास से ध्येय, अध्येय सर्व पदार्थों का हस्तामलकवत् साक्षात्कार होता है उसको “सम्प्रज्ञातसमाधि” कहते हैं।।
सं० - अब योगशास्त्र के अनुसार उक्त तीनों की एक संज्ञा कथन करते हैं:-