सूत्र :ततः परमावश्यता इन्द्रियाणाम् ॥॥2/55
सूत्र संख्या :55
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : पद० - ततः। परमा। वश्यता। इन्द्रियाणाम्।
पदा० - (तत:) प्रत्याहार के सिद्ध होने से (इन्द्रियाणाम्) इन्द्रियें (परमा, वश्यता) अत्यन्त वश हो जाती हैं।।
व्याख्या :
भाष्य - जिस योगी का प्रत्याहार सिद्ध हो जाता है उसकी इन्द्रियें अत्यन्त वश में हो जाती हैं अर्थात् उसको इन्द्रियजय की प्राप्ति होती है।।
यहां इतना विशेष स्मरण रहे कि शब्दादि विषयों में आसक्ति के अभाव का नाम इन्द्रियजय है, ऐसा कोई एक मानते हैं और कोई एक वेदाविरूद्ध विषयों में प्रवृत्ति और निषिद्ध में अप्रवृत्ति को इन्द्रियजय मानते हैं और कोई एक विषयाधीन होकर स्व-इच्छा से विषयों में प्रवृत्ति को इन्द्रियजय मानते हैं और कोई एक राग द्वेष से रहित केवल मध्यस्थभाव से विषयों में प्रवृत्ति को इन्द्रियजय कहते हैं और महर्षि जैगीषव्य एकाग्र होने के कारण इन्द्रियों के सहित चित्त की विषयों में अप्रवृत्ति को इन्द्रियजय मानते हैं, यही इन्द्रियजय सूत्रकार को इष्ट है।।
दोहा।
कियायोग, क्लेश, हेय, कारण, हान, निदान।
यम नियमादिक कथन कर, किया पदा अवसान।।
इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिवद्धे, योगार्य्यभाष्ये
द्वितीय साधनपाद: समाप्त: