सूत्र :देशबन्धः चित्तस्य धारणा ॥॥3/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द
अर्थ : ओ३म्
अथ तृतीय विभूतिपाद: प्रारभ्यते।
सं० - प्रथम और द्वितीय पाद में योग तथा योग के साधनों का निरूपण किया, अब इस तृतीय पाद में विभूतियों का निरूपण करते हुए प्रथम धारणा का लक्षण करते हैं:-
पद० - देशबन्ध: । चित्तस्य । धारणा।
पदा० - (चित्तस्य) चित्त का (देशबन्ध:) देशविशेष में स्थिरकरना (धारणा) धारणा कहलाती है।।
व्याख्या :
भाष्य - नाभिचक्र, हृदयकमल, भू़द्र्धाज्योति, नासिकाग्र, जिह्वाग्र, तालु आदि प्रदेशों में वृत्तिद्वारा चित्त को बांघना=स्थिर करना धारणा कहलाती है, बांधना, स्थिरकरना, यह दोनों पय्र्याय शब्द हैं अर्थात् नाभिचकादि विषयों में चित्त की स्थिति का नाम धारणा है।।
सं० - अब ध्यान का लक्षण करते हैं:-