सूत्र :संस्कारपरामर्शात् तदभावाभिलापाच् च 1/3/36
सूत्र संख्या :36
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (संस्कारपरामर्शात्) संस्कारों का विचार होने से (तद्) उसका संस्कार अभाव न होना (अभिलापात्) बतलाया जाने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि शूद्र के माता-पिता उसके उपनयन आदि संस्कार नहीं कराते, जिससे उनके भीतर स्वयम् उत्तम संस्कार न होने का चिन्ह मालूम होता है और ब्रह्माज्ञान के लिये आवश्यक है कि प्रथम माता-पिता से उच्च शिक्षा और संस्कार प्राप्त कर पुनः पिता से उत्तम शिक्षा और उच्च संस्कार प्राप्त करें। फिर आचार्य से उच्च शिक्षा और संस्कार प्राप्त करें। क्योंकि शूद्र प्रथम के दोनों उत्तम संस्कारों से शून्य होते हैं। इस कारण शूद्र की आयु का प्रथम भाग अच्छा नहीं होता। जिस ग्रह की नींव की बुरी है, उस पर ब्रह्माविद्या जैसे भवन कैसे स्थापित रह सकता है। हाँ, जिसके संस्कार नियमपूर्वक हों, वह ब्रह्माविद्या को जान सकता है।
प्रश्न- दूसरे मत और विदेशी मनुष्य संस्कार से खाली हैं, क्या उनको ब्रह्माविद्या का अधिकार नहीं?
उत्तर- जो मनुष्य आध्यात्मिक शक्ति से रहित हैं, जिनके अन्तःकरण पाशविक नियम अर्थात् जिसमें बल है, उसी का अधिकार है, इस सिद्धान्त पर आचारण कर रहा है, उनमें मनुष्यता ही नहीं। यदि मनुष्यता होती, तो किस प्रकार मसीह की भेड़े बनकर परमेश्वर को सांत मान लेते। निश्चय ब्रह्माविद्या का अधिकार संस्कारहीन को नहीं हो सकता है। शूद्र को क्यों अधिकार नहीं, इस पर और युक्ति देते हैं।