सूत्र :अथातो ब्रह्मजिज्ञासा 1/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (अथ) के अर्थ हैं-उपरान्त, मंगल अथवा अधिकार (अतः) इस कारण (ब्रह्म) सबसे बड़ा सर्वव्यापक परमात्मा को (जिज्ञासा) जानने की इच्छा है।
व्याख्या :
भावार्थ- धर्मादि ज्ञान के उपरान्त ब्रह्म को जानने की इच्छा करते हैं। जब यह सूत्र ऋषि ने वर्णन किया, उस समय बहुत-सी शंकायें उत्पन्न हो गई, जिन्हें प्रश्नोत्तर-रीति के ढंग पर हम नीचे लिखते हैं-
प्रश्न-यह कथन सत्य नहीं; क्योंकि इच्छा उस वस्तु की होती है, जो उपयोगी और अप्राप्त हो। उपयुक्त तथा अनुपयुक्त का भेद बिना ज्ञान के नहीं किया जा सकता; अतः जिस वस्तु की इच्छा होगी, उसका ज्ञान होना आवश्यक है और जिससे घृणा होगी, उसका जाना हुआ होना भी आवश्यक है यदि यह मान जिय कि हमसे ब्रह्म जाना हुआ है, तो भी इच्छा नहीं हो सकती; क्योंकि इच्छा अप्राप्त की होती है। जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त है, तो उसकी इच्छा किस भाँति उत्पन्न हो सकती है? निदान दोनों दशाओं में इच्छा न होने से यह सूत्र उचित (सत्य) नहीं है।
उत्तर-प्रथम ब्रह्म जान चुके हैं, जिससे सुख भी मिल चुका है़; इस कारण सूत्रकार का ब्रह्म जानने की इच्छा करना उचित है; क्योंकि जिस वस्तु को प्रथम प्राप्त करके सुख प्राप्त कर लिया हो और वह वस्तु न रहे, तो उसकी इच्छा होती है। बन्धन नैमित्तिक है और जिसका किसी काल में होना आवश्यक है। इससे यह मानना पड़ता है कि बन्धन से पूर्व मुक्ति थी। मुक्ति ब्रह्म के ज्ञान से होती है। इस कारण इस सूत्र से निश्चित होता है कि वर्तमान बन्ध्न से पहिले ब्रह्म जाना हुआ था और अंतःकरण के आवरण से वह ज्ञान ढँप गया जिसकी प्राप्त करने की पुनः इच्छा होती है।
प्रश्न-क्या ब्रह्मा स्वयम् अपिद्या से अपने आपको भूल गया है; जिससे इसको निज स्वस्प के जानने की इच्छा हुई है अथवा ज्ञाता और है और ब्रह्मा ज्ञेय जानने के योग्य और है? यदि ब्रह्मा की ब्रह्मा के जानने की इच्छा हुई, तो आत्माश्रयी दोष है और यदि जानने की इच्छावाला बहा से भिन्न कोई दूसरा चेतन है, तो वेदान्त का सिद्धान्त खण्डन होता है, क्योंकि वेदान्ती एक ही चेतन मानते हैं।
उत्तर-वेदान्तशास़्त्र में दो चेतन माने जातें हैं-एक जीव और दूसरा ब्रह्मा। आगें बहुत से सूत्र मिलेंगे, जो इस भेद को प्रकट करेंगे। जीव भी अवस्था-भेद से दो प्रकार का हो जाता है-एक बद्ध और दूसरा मुक्त। बद्ध को जीव और मुक्त को ईश्वर कहते हैं। इस कारण तीन चेतन हुए- एक शुद्ध ब्रह्मा, दूसरे जीव और तीसरे ईश्वर। एक चेतन मानकर यह सू.त्र ही नहीं बन सकता, न सर्वज्ञ ब्रह्मा में भुल आ सकती है और न इसको जानने की इच्छा हो सकती है। जो मनुष्य यह कहते हैं कि अविद्या के आवरण से ब्रह्मा अपने स्वरूप को भूल गया, वे बहुत भूल करते हैं; क्योंकि आवरण दो द्रव्यों के बीच तीसरे द्रव्य में आया करता हैं। जैसे कि ब्रह्मा और जीव के बीच जीव की अल्पज्ञता से आवरण आना सम्भव है, परन्तु गुण और गुणी के बीच आवरण आने में दृष्टान्त का अभाव है। मुक्त अवस्था में जीव ब्रह्मा को जानता है और उससे आनन्द लेता है और बद्ध अवस्था में ब्रह्मा के ज्ञान से रहित होता है; केवल संस्कारमात्र होता है। इस प्रकार इसके जानने को इच्छा होती है। जब वेदान्ती छः पदार्थ तक अनादि मानते है।तो अ़द्वैत और आत्माश्रयी दोष का झगड़़ा ही नहीं रहता।
प्रश्न-यद्यपि वेदान्ती छः पदार्थ अनादि मानते है; परन्तु इनमें से पाँच अनादि सांत और अनादि अनन्त मानते है; इस कारण वेदान्त को सिद्धान्त द्वैत नहीं है।
उत्तर-जिसका आदि नहीं, उसका अन्त भी नहीं हो सकता;क्योंकि पदार्थ नित्य होंगे अथवा अनित्य; इनके अतिरिक्त असम्भव होंगे। नित्य वह है जिसका आदि और अन्त न हो और अनित्य वह है जिसका आदि और अन्त दोनों हों। नित्या-नित्य में तो अनादि सात पदार्थ नहीं आ सकते, इस कारण इनको असम्भव ही विचार करना उचित हैं।
प्रश्न- क्या छः अनादि और पाँच सात का सिद्धान्त असत्य है?
उत्तर- यह सिद्धान्त असत्य ता नहीं है; परन्तु जिस प्रकार तुम समझ रहे हो, वह असत्य है; क्योंकि आदि और अन्त दो प्रकार से होते हैं-एक देश के कारण और दूसरे काल के कारण।जो वस्तु काल के कारण अनादि होगी, वह काल के अनुसार तो छःअनादि और अनन्त हैं ही, परन्तु देश के अनुसार ब्रह्मा अनादि और अनन्त है और शेष सान्त है।
प्रश्न- यदि वेदान्त का सिद्धान्त अ़़द्वैतवाद न होता, ता श्रुति ऐसा क्यों बतलाती कि एक के जानने से सब जाने जाते हैं।
उत्तर- ब्रह्मा सबसे सूक्ष्म होने के कारण सबके अन्त में जाना जाता है; इसीलिये ब्रह्माविद्या का नाम रक्खा है और यह सीधी बात है कि अन्त के जानने से पहिले उसके पहले वाले सब पदार्थ जाने जाते हैं। अतः श्रुति का अर्थ यह है कि एक ब्रह्मा जानने के लिये इससे पहिले वालों का ज्ञान हो ही जायेगा। इस कारण ब्रह्मा के जानने से सबका जानना बतलाया, इसमें कोई दोष नहीं।
प्रश्न-जबकि स्पष्ट शब्दों (अक्षरों) में लिखा है कि इस सुष्टि से पहिले आत्मा था, वह एक अद्वैत है; फिर तुम किस प्रकार भेद मानते हो?
उत्तर- आत्मा शब्द का अर्थ व्यापक है, व्याप्य के बिना हो ही नहीं सकता। इसलिये आत्मा कहने से व्याप्य-व्यापक या प्रकृति और ब्रह्मा दोनों का ग्रहण होता है। इस कारण आत्मा के होने से तीनों का होना अर्थ से सिद्ध है। जैसे कोई कहे कि एक ही राजा थाः, परन्तु राजा के कहने से ही उसकी प्रजा और राज्य का ग्रहण हो जाता है; चाहे राजा के साथ प्रजा का शब्द न भी कहा जाय; केवल यही कहा जाय कि एक अद्वैत राजा ही था, जिसका सीधा अर्थ यह होता है कि दूसरा राजा नहीं था। राजा (दूसरे आत्मा शब्द से जीवात्मा और परमात्मा का ग्रहण हो जाता है) के अद्वैत कहने से दूसरे राजा का अभाव होता हे। प्रजा राजसामग्री की शून्यता नहीं होती, क्योंकि प्रजा और राज्य-सामग्री के बिना वह राजा कहला ही नहीं सकता।
प्रश्न- अद्वैत का अर्थ ही सजातीय, विजातीय स्वगत भेद से शून्य होना बतलाया है। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लाम में भी ऐसा ही लिखा है; अतः ब्रह्मा का नाम अद्वैत नाम से उससे पृथक् वस्तु विजातीय जीव और प्रकृति का अभाव ही सिद्ध होता है।
उत्तर-विजातीय शब्द दो अर्थो में है-एक विरूद्ध जातीय और दूसरी भिन्न जातीय। यहाँ विजातीय शब्द विरूद्ध जाति अर्थ में आया है अर्थात् ब्रह्मा की विराधी कोई वस्तु नहीं जो इसके कार्यों को रोक सके। दूसरे जाति कहते है जो एक होकर बहुतों में रहे; परन्तु ब्रह्मा एक है इस कारण ब्रह्मा जाति नहीं। जिसमें जाति नहीं उसमें भिन्न जाति कैसे हो सकती है; इस कारण यह कहता कि ब्रह्मा सजाती, विजातीय अथवा स्वगत भेद से रहित ही उचित है।
प्रश्न-क्या कोई भी श्रुति अद्वैत को प्रकट करने वाली नहीं?
उत्तर-ब्रह्मा जगत् का स्वामी और जीवों का राजा होने से एक हैः इस वास्ते इस अद्वैत को कहने वाली श्रुतियाँ भी सत्य हैं।
प्रश्न- ब्रह्मा का लक्षण क्या है ? क्योंकि बिना लक्षण और प्रमाण के कोई वस्तु नहीं जानी जाती है।