सूत्र :क्षत्रियत्वगतेश् च उत्तरत्र चैत्ररथेन लिङ्गात् 1/3/35
सूत्र संख्या :35
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (क्षतियत्व) क्षत्रियपन का (गतेः) ज्ञान होने से (उत्तरत्र) उसके पूर्व पुरखा (चैत्ररथेन) चैत्ररथ नाम क्षत्रिय के साथ (लिंगात् चिन्ह पाया जाने से।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि जानश्रुति कुल से भी और गुण, कम, स्वभाव से भी क्षत्रिय सिद्ध; इस कारण रैक्व मुनि ने उसकों पढ़ाया। यदि वह गुण, कर्म, स्वभाव से शूद्र होता, तो उसको मुनि किसी दशा में न पढ़ाते; क्योंकि प्राचीन ऋषि गुण, कर्म, स्वभाव से वर्ण स्वीकार करते है।
प्रश्न- जानश्रुति में कौनसा गुण, कर्म और स्वभाव से क्षत्रिय का चिन्ह था?
उत्तर- जहाँ वह कुल से क्षत्रिय था, वहाँ उसने जो बल से धन आदि प्राप्त किया था, वह उसके शूद्र होने का खण्डन करता है; क्योंकि शूद्र सेवा करते थे, न कि राज्य। जबकि वह राजा हो गया, तो शूद्र कैसे कहला सकता था।
प्रश्न- क्यों शूद्र को अधिकार नहीं?