सूत्र :समाननामरूपत्वाच्चावृत्तावप्यविरोधो दर्शनात् स्मृतेश् च 1/3/30
सूत्र संख्या :30
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (समान) एक (नामरूपत्वात्) नाम और रूप होने से (च) भी (आवृत्तौ) दुबारा होने पर (अपि) भी (अविरोधः) विरोध वा रूकावट नहीं (दर्शनात्) देखने से (स्मृतेः) स्मतियों से ज्ञात होने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि प्रत्येक सृष्टि में सूर्य का एक रूप होता है, जगत् की सब वस्तुओं की एक-सी आकृति (शक्ल) होती है और वेदों में उनके नाम भी एक-से होते हैं; इस कारण वह अनित्य नहीं हो सकते। इसलिये वेदों का उत्पन्न होना और नाश होना अर्थात् ईश्वर से जगत् पर प्रकट होना और ईश्वर में लय हो जाना वेदों के अनित्य होने का कारण नहीं हो सकता। उसका प्रमाण यह है कि जैसे एक मनुष्य गृह में छिप जाये और दो घंटे पश्चतात् उसी रूप वा आकृति में निकल आये, तो वह नवीन पुरूष नहीं कहा जा सकता। ऐसे वेद अनित्य नहीं हो सकते। इसमें प्रत्यक्ष और मत दोनों प्रकार के प्रमाण मिलते है। नित्य सूर्य हमारे सम्मुख से छिप जाता है और अगले दिन प्रकट हो जाता है, जिससे संसार में रात-दिन होता है; परन्तु इससे कोई मनुष्य यह नहीं कहता कि सूर्य नित्य सायंकाल को नाश होता वा नित्य प्रातःकाल को उत्पन्न होता है; इस कारण वह अनित्य है। जिस प्रकार रात-दिन के व्यवहार से सूर्य अनित्य नहीं होता; ऐसे ही सृष्टि और प्रलय के व्यवहार से वेद अनित्य नहीं हो सकते।
प्रश्न- जबकि नित्य देवताओं के शरीर बनते और नाश होते हैं, तो उनको प्रगट करनेवाला शब्द भी बनते-बिगड़ते ही रहेंगे, इससे वेदों के शब्द अनित्य ही कहावेंगे।
उत्तर- जिस प्रकार किसी गौ के नाश हो जाने से गौ शब्द भी उसके साथ नष्ट नहीं हो जाता; क्योंकि उससे रूप में समता रखनेवाली जितनी गोयें हैं, उनमें वह शब्द उसी सम्बन्ध से स्थिर है; इस कारण नाम और रूप के एक-सा होने के कारण वेद के शब्द एक-से रहते हैं। इस कारण वह गौणिक नाम होने के कारण अनित्य नहीं। जिस प्रकार नित्य-प्रति निद्रा की दशा में जीवात्मा, मन और इन्द्रियाँ भी लय हो जाती हैं और जाग्रत अवस्था में पुनः प्रगट हो जाती हैं; क्या इससे वह इन्द्रियाँ नित्य उत्पन्न होनेवाली विचार ली जाती हैं या दिन नित्य-प्रति उत्पन्न होनेवाला समझा जा सकता है?
प्रश्न- यदि यह स्वीकार किया जावे कि प्रति दिवस नवीन इन्द्रियाँ और मन उत्पन्न होते हैं, तो दोष ही क्या है?
उत्तर- इस दशा में स्मृति का आभास होगा; क्योंकि कल जिस मनुष्य को देखा था, उसका आभास जिस मन पर पड़ा था, आज वह मन उपस्थित नहीं। इस प्रकार शिक्षा का क्रम सब समाप्त हो जावें; क्योंकि नित्य-प्रति नवीन मन होने से कल का पाठ भूल जावेगा।
प्रश्न- हम तो ऐसा मानते हैं कि ज्ञान जिस प्रकार बालकों को बढ़ता हुआ देखता है, जब वह बड़े होते हैं, तो पूर्ण ज्ञान होकर पुस्तकें लिखते जाते है; ऐसे ही प्राचीन मनुष्य (वहशी) जंगली थे; धीरे-धीरे जब ज्ञान बढ़ाया, तब उन्होने बेद लिख दिये; इस कारण वेद नित्य नहीं कह सकते।
उत्तर- ऐसा मानने में सृष्टि-नियम के विरूद्ध होता है; क्योंकि सृष्टि में सूर्य का प्रकाश जो पूर्ण प्रकाश है, प्रथम बना और फिर दीपक; लैम्प बने; ऐसे ही जब जल गंगा के गंगोत्री से निकलता है, तब शुद्ध होता है आगे चलकर मलिन हो जाता है इसी प्रकार वेद सृष्टि के बहुत दिन पश्चात् उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु माता-पिता से उत्पन्न होनेवाले मनुष्य सृष्टि से प्रथम उत्पन्न हुए, जैसा कि स्मृति में लेख है कि जिस योनि का जो कर्म सृष्टि से पूर्व वेद में निश्चित किया गया, वह बार-बार जन्म लेते हुए उसी कर्म को करते हैं, जो योनि हिंसक् बनाई गई, वह हिंसक और दयालु बनाई गई, वह दयालु नजर आती हैं। जिस योनि को जिस कर्म के कारण बनाया गया है, वह वैसा ही करती है।
प्रश्न- मनुष्य को परमात्मा ने हिंसक बनाया है, वा दयालु (अहिंसक)?
उत्तर- मनुष्य उभयोनि अर्थात् क्षीणता, अवनति और उन्नति दोनों करनेवाला है, इस कारण मनुष्य दो प्रकार के हैं-एक आर्य दूसरे दस्यु। आर्य दयालु होता है और दस्यु निर्दय होता है। आर्य ज्ञानानुकूल कर्म करनेवाले का नाम है, जो देवताओं का अनुगमन करता है, दस्यु अवनत कर्म करनेवाले का नाम है, जो दैत्यां का अनुगमन करता है। आर्य परोक्ष अर्थात् विद्यमान पर प्रसन्न होता है; आर्य श्रेष्ठ मार्ग पर चलता हैऔर दस्यु प्रेम मार्ग पर।
प्रश्न- क्या जिस प्रकार की सृष्टि अब उत्पन्न हुई है, ऐसी ही प्रथम भी थी और आगे भी होगी?
उत्तर- वेद में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी और समुद्र आदि परमात्मा ने पूर्व उत्पन्न किये थे; ऐसे ही अब भी किये हैं; आगे भी ऐसी की करेगा; क्योंकि परमात्मा के सर्वज्ञ होने से, उसमें उलट-पुलट नहीं होता1 स्मृति में लिखा है कि जिस प्रकार ऋषियों के नाम अब वेदों में देखे जाते हैं वा जिन ऋषियों के नाम अब वेदों में देखे जाते हैं वा जिन ऋषियों ने वेदों को देखा है, उनके नाम ब्रह्मा रात्रि बीतने के पश्चात् जन्म से रहित परमात्मा वैसा ही देता है2। जितने प्रमाण वेदों के ईश्वरीय ज्ञान और नित्य होने के कारण विद्यमान हैं, उनको इस भाष्य के भीतर प्रस्तुत नहीं कर सकते।
प्रश्न- यूर्यादि देवताओं को वेद का अधिकार है वा नही?
उत्तर- उस पर जैमिनि ऋषि की सम्मति है-