सूत्र :हृद्यपेक्षया तु मनुष्याधिकारत्वात् 1/3/25
सूत्र संख्या :25
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (हृद्यपेक्षयातु) हृदय के अँगूठे के बराबर होने से (मनुष्याधिकारत्वात्) मनुष्य के अधिकार होने के कारण।
व्याख्या :
भावार्थ- जिस प्रकार इतने बड़े सूर्य का आभास किसी चित्रकार के द्वारा उतारा जावे, तो जितना बड़ा दर्पण होगा, उतना ही बड़ा प्रतिबिम्ब पड़ेगा। ऐसा ही यद्यपि ब्रह्मा सर्वव्यापक है; परंतु जिस हृ दय में उसका आभास लेते हैं, वह अँगूठे के बराबर है; इस कारण हृदय के नाप के बराबर ही उसके आभास का नाम होगा। इस विचार से पुरूष अर्थात् परमात्मा को अँगूठे के समान बतलाया है।
प्रश्न- अनेक योनियों में सबके हृदय अँगूठे के बराबर नहीं हो सकते। चींटी का हृदय स्थान अधिक छोटा होगा और हाथी का हृदय अधिक बड़ा होगा; फिर किस प्रकार उसको अँगूठे के समान बतलाया? यदि सब जीवों का हृदय स्थान अँगूठे के बराबर होता, तब यह बात समान हो सकती है
उत्तर- सब योनियाँ सिवाय मनुष्य के भोग-योनि हैं; जिनमें परमात्मा का ज्ञान हो ही नहीं सकता; इस कारण उनके हृदय के छोटे-बड़े होने से कोई दोष नहीं। अतः परमात्मा को जानने का अधिकार केवल मनुष्य को है। उसका हृदय स्थान अँगूठे के बराबर है।
प्रश्न- मनुष्यों में भी शारीरिक अवस्था का भेद है-कोई अधिक बड़ा है, कोई छोटा है; तो सबका हृदय स्थान अँगूठे के समान कैसे हो सकता है?
उत्तर- जितना बड़ा मनुष्य का शरीर होगा, उसी अनुसार उसका अँगूठा और हृदय स्थान होंगे; निदान प्रत्येक मनुष्य के अँगूठे के बराबर हैं।
प्रश्न- क्या मनुष्य से ऊपर जो देवता आदि हैं, उनको ब्रह्मा का अधिकार नहीं।
उत्तर- इस पर व्यास जी कहते हैं-