सूत्र :विरोधः कर्मणीति चेन् नानेकप्रतिपत्तेर् दर्शनात् 1/3/27
सूत्र संख्या :27
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (विराधः) रूकावट (कर्मणि) कर्म है (इतिचेत) यदि ऐसा है (न) दोध नहीं (अनेक) एक से अधिक (प्रतिपत्तेः) अधिकार के होने को (दर्शनात्) देखने से।
व्याख्या :
भावार्थ- यदि देवता शरीरधारी भी हैं, तो कर्म में कोई रूकावट नहीं आती; क्योंकि जिस प्रकार एक ही सूर्य सारे संसार के कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखता है। यद्यपि सूर्य शांत अथवा शरीरी पदार्थ है; परन्तु जहाँ कोई कर्म करेगा, वहीं सूर्य का अनेक स्थान के कर्म के साथ सम्बन्ध देखते हैं। दूसरे बहुत से आचार्य इस प्रकार मानते हैं कि देवता अधिक शरीर धारण कर सकता है आर योगी के लिये जो कोई शरीर धारण करने की सिद्धि बतलाई गई है, उसको उदाहरण में प्रस्तुत कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यासजी के मत में देवता शरीरधारी हैं और एक से अधिक शरीर धारण कर सकते हैं।
प्रश्न- क्या एक जीवात्मा का एक काल में अनेक शरीर धारण करना सम्भव हो सकता है?
उत्तर- गीता आदि में लिखा है कि योगी बल प्राप्त करके आत्मा को सहस्त्रों शरीरों में जा सकता है, उससे सम्पूर्ण पृथ्वी पर घूमता है और उन सहस्त्रों आत्माओं में से कोई तो विषय भोगता है और कोई तप करता है, पुनः उन सहस्त्रों को जमा कर लेता है; जैसे सूर्य अपनी किरणों को।
प्रश्न- निश्चय गीता में लिखा है; परन्तु सम्भव होना केवल लेख से नहीं; किन्तु प्रमाणों से आवश्यक है।
उत्तर- आत्मा प्रत्यक्ष तो है ही नहीं, जिस पर प्रत्यक्ष प्रमाण हों। अनुमान प्रत्यक्ष के आधीन होता है। उसपर प्रत्यक्ष के सम्बन्ध के ग्रहण किये बिना शून्य और प्रमाणों का पक्ष (दावा) नहीं किया जा सकता; निदान गीता के वाक्य और व्यास के कथन से स्पष्ट प्रकट है; परन्तु दूसरा सूर्यवाला उत्तर तो प्रत्यक्षवादियों के लिये भी है, उस पर अगले सूत्र में विचार करते है।