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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :शब्द इति चेन् नातः प्रभवात् प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् 1/3/28
सूत्र संख्या :28

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (शब्द) शब्दों के अर्थ (इतिचेत) यदि यह शंकाहो (न) कोई दोष नहीं (अतः) इससे (प्रभवात्) उतपन्न होने से। प्रभवात्प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् प्रत्यक्ष और अनुमान से।

व्याख्या :
भावार्थ- इस स्थान पर शंका उत्पन्न होती है है कि यदि देवतों की मूर्ति मानने से कर्म में रूकावट न भी हो, तो भी शब्द प्रमाण रहेगा; क्योंकि शब्द और अर्थ के अनादि सम्बन्ध के कारण वेद को अनादि होने से बिना किसी दूसरे प्रमाण की उपस्थिति के प्रमाण स्वीकार किया है; परन्तु जब देवतों की मूर्ति अनित्य है, क्योंकि वह एक और अनेक हो सकती है और और जिसमें विकार होता है, वह अनित्य होती है; इस कारण अर्थ से जो शब्द का सम्बन्ध है, वह अनित्य होगा; क्योंकि अनित्य वस्तु से नित्य सम्बन्ध हो नहीं सकता। इस कारण प्रत्यक्ष अनुमान किसी दूसरे प्रमाण से शरीरधारी पदार्थ को जानकर शब्द नियुक्त करना उचित है। उस दूसरे प्रमाण के आवश्यक होने से वेद के प्रमाण होने से रूकावट उत्पन्न होती है। उस शंका के सम्बन्ध में विचार उत्पन्न होता है कि क्या शब्द के अनित्य होने से शब्द, अर्थ का सम्बन्ध अनित्य होगा वा अर्थ के अनित्य होने से। यहद कहो शब्द के अनित्य होने से, तो बन नहीं सकता; क्योंकि देवताओं की मूर्ति का कारण होने से, कर्म में रूकावट न होने की भाँति वेद के प्रमाण में भी रूकावट नहीं। प्रश्न- क्या वेद के शब्दों से देवता प्रसन्न होते हैं, जबकि प्रथम सब जगत् ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ बतला चुके हैं? अब शब्द से उत्पन्न होना किस प्रकार बतलाते हैं; यदि वैदिक शब्दों से ही देवताओं की उत्पत्ति स्वीकार की जावे कि जितने वसु, रूद्र आदित्य देवता हैं, सबही अनित्य होंगे; क्योंकि उत्पत्ति वाली वस्तु अनित्य होती है। जब वसु, रूद्र आदि शब्द किस प्रकार अनित्य होंगे; क्योंकि यह जगत् में प्रसिद्ध बात है कि वस्तु के उत्पन्न होने पर उसका नाम रक्खा जाता है। उत्तर- शब्द दो प्रकार के होते हैं-एक यौगिक, दूसरे रूढि़। यौगिक शब्दों को तो अपने अर्थ से नित्य रहनेवाला सम्बन्ध होता है; परन्तु संसार में जिस शब्द का यौगिक अर्थ लेना स्वीकार है, जिसमें वह अर्थ पाये जायँगे, वही उसका अर्थ होगा। जाति होने से व्यक्ति अस जाति के विद्यमान होंगे, उन्हीं से उस शब्द का सम्बन्ध होगा। निश्चय वस्तु के उत्पन्न होने के पश्चात् किसी अर्थ के कारण कल्पित किया जाता है; इस कारण यह दोष नहीं आ सकता कि शब्दार्थ का सम्बन्ध उत्पन्न हुए का हो जावेगा और वेद नित्य नहीं रहेंगे और ब्रह्मा से जगत् की उत्पत्ति तो और अर्थों में बतलाई है कि ब्रह्मा जगत् का निमित्त कारण है। सूर्य आदि जितने देवता हैं, सब उसने बनाये हैं; परन्तु शब्द उत्पन्न होने से यह अर्थ है कि जिस वस्तु में वह गुण विद्यमान होंगे, शब्द का अर्थ उससे निकल आवेगा। उदाहरण- शब्द ने बतलाया है है, जैसा कि गायत्री उपनिषद् में लिखा है कि वेदों से ब्रह्या होता है अर्थात् जो चार वेदों को जानता है, वह ब्रह्या कहाता है1 अब यदि ब्रह्या मूर्तिमान स्वीकार किया जावे, तो जितने चार वेदों के ज्ञाता होंगे, सब ही ब्रह्या शब्द के अर्थों में आ जायँगे। उनमें से किसी एक के उत्पन्न होने वा नाश होने से यह सम्बन्ध टूट नहीं सकता। अतः चारों वेदों के ज्ञाता का नाम ब्रह्या होना कहाँ से ज्ञात हुआ- शब्द से; इस कारण देवता शब्द से उत्पन्न होते हैं। जिस मूर्ति उस शब्द का अर्थ हो जावेगी। इस कारण देवताओं के शरीरधारी होने से भी कोई दोष नहीं आता। प्रयोजन यह है कि जिस प्रकार गौ शब्द से बहुत शरीरधारी पशुविशेषों का ज्ञान हो जाता है; किसी एक शरीरधारी वस्तु से प्रयोजन नहीं होता; इस कारण जिस कर्म में गौ की आवश्यकता होती है, वहाँ जो गौ मिलती है, उसी से कार्य चलाया जाता है। ऐसे ही ब्रह्मा आदि शब्दों से चार वेदों के जाननेवाले से प्रयोजन है। यद्यपि वह शरीरधारी होगा; परन्तु आवश्यक नहीं कि वह एक ही हो। जितने मनुष्य व चार वेदों के ज्ञाता होंगे, वह सब ही ब्रह्मा होंगे। पिछले सूत्रों में जो देवताओं का अनेक होना बतलाया गया है, उसका इस सूत्र से पता लग गया कि शब्द ने तो गूण देवता में बतलाये हैं; जिसमें वह पाये जायँ, वह ही देवता हैं। इसी प्रकार गुण एक ही में नहीं पाये जाते; किन्तु अनेक में पाये जाते हैं, जिससे प्रत्येक देवता अनेक हो सकते हैं। अतः न तो इस कल्पना की आवश्यकता है कि देवता बहुत आकृतियें धारण कर लेता है, क्योंकि उस दशा में भी अनेक होंगे, जो असम्भव है; न योगी ही सहस्त्रों शरीर देने की आवश्यकता है; किन्तु देवता शब्द से उत्पन्न होते हैं; जिससे कोई शंका ही नहीं रही। प्रश्न- जबकि अन्य आचार्यों ने यह स्वीकार किया है कि अणिमादि सिद्धियों से योगी एक से अधिक रूप धारण कर सकता है; क्या वह सत्य नहीं? उत्तर- शरीर तो अनेक हो जावें; परन्तु मन और आत्मा अनेक कहाँ से होंगे; क्योंकि आत्मा अपने सजातीय नहीं उत्पन्न कर सकता, न म नही अपने सजातीय उत्पन्न कर सकता है। निदान अणिमा आदि सिद्धियों का अर्थ यह नहीं, क्योंकि योग के सम्बन्ध में उसका पाट करनेवालों को योग का भाष्य देखने से मिलेगा। प्रश्न- प्रत्यक्ष और अनुमान से यह बात सिद्ध है; क्योंकि प्रत्येक मनुष्य देवता है। गौ शब्द के कहने से गौ जाति का ज्ञान हो जाता है और अनुमान से भी ज्ञात होता है कि जिस शब्द से जिस वस्तु का सम्बन्ध है, उस शब्द से अर्थ का ज्ञान हो जावेगा। श्रुति औ स्मृति के कथन से भी अनुमान होता है, जैसा कि कहा है-प्रथम सब का नाम और कर्म पृथक्-पृथक् ज्ञान में स्थित करके वेद शब्द से उनके वर्णन और उनकी उत्पत्ति की और भी सब देखा है कि शब्द को सुन करके ही उसके अर्थ को देखते हैं। इस कारण प्रजापति ने भी सृष्टि से पूर्व वैदिक शब्दों को ज्ञान में निश्चय करके तदनन्तर उससे जानने योग्य वस्तुओं को बनाया; इस प्रकार और बहुत-सी युक्तिओं से भी सिद्ध होता है कि देवता आदि की कल्पना वैदिक शब्दों से होती है। अब वेदों का नित्य होना सिद्ध करते हैं।