सूत्र :उत्तराच् चेद् आविर्भूतस्वरूपस् तु 1/3/19
सूत्र संख्या :19
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (उत्त्रात्) ऊपर के होने से (चेत्) यदि हो (आविर्भूतस्वरूपस्तु) अविद्या से ढका हुआ चेतन जब परदे को दूर करके प्रकट होगा।
व्याख्या :
भावार्थ- जीवात्मा अविद्या से ढका हुआ चेतन है; इस कारण उस अवस्था में जब् उत्पन्न नहीं कर सकता। जिस समय अविद्या के आवरण को पृथक् करके प्रकट होगा, तो वह जगत् का कारण हो सकता है; इसलिये जीव लेने में कोई दोष नहीं।
प्रश्न- क्या जीव ही दूसरी अवस्था में ब्रह्मा हो सकता है या नहीं?
उत्तर- यदि जीव अविद्या के आवरण में आया हुआ चेतन है, तो अविद्या का कारण क्या है और अविद्या किसका गुण है? सदि कहो अविद्या सर्वज्ञ ब्रह्माका गुण है, तो बन नहीं सकता; क्योंकि सूर्य में अंधकार रह नहीं सकता और यदि कहो जीव का गुण अविद्या है, तो अविद्या के सहारे जीव का होना और जीव के सहारे अविद्या का होना अन्योन्याश्रय दोषयुक्त है; इस कारण अविद्या का परदा आना ही कठिन है और न उससे जीव उत्पन्न हो सकता है; इस कारण जब ब्रह्मा में अविद्या ही नहीं हो सकती, तो वह जीव हो ही नहीं सकती; और जब ब्रह्मा का हनीं बन सकता, तो जीव अविद्या के नाश से कैसे ब्रह्मा बन सकता है?
प्रश्न- फिर ‘‘तत्त्वमसि’’ छान्दोग्योपनिषद् में कहा है; क्या यह उचित नहीं? उससे स्पष्ट जीव और ब्रह्मा की एकता पाई जाती है।
उत्तर- जहाँ पर यह वाक्य आया है, वहाँ उद्दालय मुनि ने अपने शिष्य क्षेतकेतु को उपदेश किया है। उस स्थान में नौ बार यह शब्द आया है; परन्तु सारे विषय के पढ़ने से जीव और ब्रह्मा की एकता सिद्ध नहीं होती; किन्तु यह सिद्ध होता है कि क्षेतकेतु जीव तू है।
प्रश्न- जबकि अन्य आचार्यों का एकसा कथन है कि जब तक भेद बुद्धि को जो कि अविद्या है, दूर नहीं किया जावेगा और जब तक साक्षी के ढंग पर नित्य देखनेवाला अपने को ‘मैं’ ब्रह्मा हूँ ऐसा नहीं मानता, तब तक ही जीव रहता है। जहाँ भेद ज्ञान को दूर कर दिया तब ब्रह्मा हो जाता है; इसी कारण उपनिषदों में एकसा लिखा है कि जीव समझे ‘मैं’ ब्रह्मा हूँ’।
उत्तर तुम पिछले सूत्रों में पढ़ चुके हो कि उपनिषदों में स्थान-स्थान पर भेद का उपदेश करते हैं। ‘मैं’ ब्रह्मा हूँ’ यह कहना अविद्या है; क्योंकि जीव ब्रह्मा नहीं हो सकता। उपनिषद् में जहाँ ‘मैं ब्रह्मा हूँ’ ऐसा दिखलाया है, वहाँ यह विषय था कि इस सृष्टि से पूर्व ब्रह्मा ने आपको ब्रह्मा जाना, तो जीव भी अपने आपको ब्रह्मा जान ले। जैसे-राजा तो राजा होता है; परन्तु नाई भी अपने को राजा कहने लग जाय, तो क्या राजा कहने से नाई की प्रतिष्ठा हो जावेगी। वासक्तव में जीव का अपने को ब्रह्मा मानना अविद्या है।
प्रश्न- क्या जिन मनुष्यों ने यह कहा है कि दूसरे से भय होता है, एक मानने से भय नहीं होता, यहाँ अशुद्ध है?
उत्तर- निश्चय, जो ईश्वर को अपने से दूर मानता है, वही ईश्वर जानता है और उसको भय होता है तात्पर्य जीव-ब्रह्मा का भेद तो श्रुतियों ने जोर से दिखलाया है; इस कारण जीव-ब्रह्मा को एक मानना वेद के विरूद्ध होता है और जो उपदेश श्रुतियों से मिलता है, वह इसके विरूद्ध होता है और जो उपदेश श्रुतियों से मिलमा है, वह सबका भेदवाला है; परंतु जहाँ कहीं अभेद प्रतीत होता है, वहाँ दूरी का अभाव शून्यता बतलाने वा विरोध के न होने के कारण से कहा गया है। जैसे-बहुधा प्रेमी मनुष्यों के न होने के कारण से कहा गया है। जैसे-बहुधा प्रेमी मनुष्यों को देखकर कहते हैं कि यह दोनों एक हैं; जिस समय ब्रह्मा जीव-ब्रह्मा के संग से आनन्द गुण को प्राप्त कर लेता है, उस समय उसमें सच्चिदानन्द के गुण पाये जाते हैं। उसको ब्रह्मा उपचार से कह सकते हैं। जैसे-लोहे के गोले में जब अग्नि अधिक हो जाती है, तो कहते हैं कि यह अग्नि हो गया परन्तु अर्थ स्पष्ट होता है कि उसमें अग्नि इतनी प्रवेश हो गई है कि वह दूसरों को जला सकता है, जो कि अग्नि का कर्म है। वास्तव में इस गोले में अग्नि आदि के होने से गोले के गुण भी विद्यमान् होते हैं।
प्रश्न- वामदेव ऋषि ने वृहदारण्यक उपनिषद् में अपने को ब्रह्मा कहा है; क्या उचित नहीं है?
उत्तर- हम बतला चुके हैं कि विरोध न रहने के कारण व अधिक प्रेम के कारण उपचार से कहा है, वास्तव में जीव ब्रह्मा का भेद ही बतलाया है; क्योंकि जीव के भीतर ब्रह्मा विद्यमान है। उपाधि से जीव ब्रह्मा को भेद नहीं; किन्तु व्यापक व्याप्यधर्म से जीव ब्रह्मा का भेद श्रुति ने दिखलाया हैं; इस कारण वामदेव ऋषि ने अधिक प्रेम से कहा है कि अब दिखलाते हैं कि दहर आकाश में ईश्वर का ही उपदेश है।