सूत्र :इतरपरामर्शात् स इति चेन् नासंभवात् 1/3/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (इतरपरामर्शात्) इन लक्षणों से दूसरे जीवात्मा का विचार होने से (सः) वह जीव दहर है (इतिचेत्) यदि ऐसी शंका है (न) नहीं (असम्भवात्) असम्भव होने से।
व्याख्या :
भावार्थ- यदि जीव को आत्मा शब्द से प्रयोग किया गया है, उसको भी शुद्धस्वरूप कहा गया; परन्तु वह सान्त होने से दहर आकाश के अर्थों में नहीं लिया जा सकता; क्योंकि उसका जगत्कर्ता आदि होना असम्भव है।
प्रश्न- जीव के परिच्छिन्न होने का क्या प्रमाण है? हम तो जीव को विभु मानते हैं।
उत्तर- श्रीर को त्सागकर जाना और किसी शरीर को प्राप्त होना, यह सर्वव्यापक विभु के धर्म नहीं हो सकते; सान्त वस्तु आया जाया करती है। जीव असंख्य है, एक नहीं; इस कारण वह विभु नहीं हो सकते। यदि एक जीव होता, तो उसके निकल जाने से शरीर की मृत्यु किसा प्रकार हो सकती है।
प्रश्न- क्या महर्षि कणाद ने जो आत्मा को विभु माना है, वह असत्य है?
उत्तर- महर्षि कणाद ने जो कुछ लिखा है, वह उचित है; क्योंकि वह आत्मा शब्द से जीवात्मा और परमात्मा दोनों अर्थ लेते हैं; जिनमें से परमात्मा तो स्वरूप से विभु है और जीवात्मा जाति से विभु है।
प्रश्न- बहुत से मनुष्य बुद्धि उपाधि से भिन्न किये हुए चेतन का नाम जीव मानते हैं।
उत्तर- बुद्धि गुण है, जो कि किसी द्रव्य को भिन्न नहीं कर सकती; इस कारण यह सिद्धान्त शुद्ध है।
प्रश्न- सांख्य-शास्त्र में बुद्धि को द्रव्य अर्थात् प्रकृति का कार्य माना जाता है?
उत्तर- यह भी सत्य नहीं। सांख्य शास्त्र ने कहीं भी बुद्धि को द्रया नहीं माना। जिन नास्तिक टीकाकारों ने कपिल मुनि को अपने साथ मिलाना चाहा, उन्होने कपिल के विरूद्ध महत् का अर्थ किया; वाना कपिल ने स्पष्ट शब्दों में महत् का अर्थ मन किया हैं। इस पर विपक्षी कहता है।